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19.10.07

कोई दोस्त है ना रक़ीब है.......

((जगजीत सिंह की गायी और राना सहरी की लिखी एक गजल और पेश कर रहा हूं))

कोई दोस्त है ना रक़ीब है,
तेरा शहर कितना अजीब है.

वो जो इश्क़ था वो जुनून था,
ये जो हिज्र है ये नसीब है.

यहां किसका चेहरा पढा करूं,
यहां कौन इतना क़रीब है.

मैं किसे कहूं मेरे साथ चल,
यहां सब के सर पे सलीब है.

तुझे देख कर मैं हूं सोचता
तू हबीब है या रकीब

तेरा शहर कितना अजीब है.

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ऐ ग़म ए दिल क्या करूं

((कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा है पर वो नज़्म जो मजाज़ की लिखी है,
मैं यहां लिख देता हूं.))

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सडकों पे आवारा फिरूं
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-बदर मारा फिरूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर दहकी हुई शमशीर सी
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

ये रुपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तस्व्वुर जैसे आशिक़ का ख़्याल
आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

फिर वो टूटा इक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आई ये मोती की लड़ी
हूक-सी सीने में उट्ठी, चोट-सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

रात हंस हंसके ये कहती है कि मैख़ाने में चल
फिर किसी शाहनाज़े-लाला-रुख़ के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

हर तरफ़ है बिखरी हुई रंगीनियां रानाइयां
हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगडाइयां
बढ रही है गोद फैलाए हुए रुसवाइयां
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं
लौटकर वापस चला जाउं मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवां मिल जाए ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

मुन्तज़िर है एक तूफ़ाने-बला मेरे लिए
अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए
पर मुसीबत है मेरा अहदे-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

जी में आता है अब अहदे-वफ़ा भी तोड़ दूं
उनको पा सकता हूं मैं, ये आसरा भी छोड़ दूं
हां मुनासिब है, ये ज़ंजीरे-हवा भी तोड़ दूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

इक महल की आड से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

दिल में इक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूं
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूं
ज़ख्‍म सीने में महक उठा है, आख़िर क्या करूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकडों चंगेज़ो नादिर हैं नज़र के सामने
सैकडों सुलतानो जाबिर हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

बढ के इस इन्द्रसभा का साज़ ओ सामां फूंक दूं
इस का गुलशन फूंक दूं उसका शबिस्तां फूंक दूं
तखते सुलतान क्या मैं सारा क़स्र ए सुलतान फूंक दूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
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मायने - नाशादो-नाकारा-उदास और बेकार, क़ुमक़ुम- बिजली की बत्ती, शमशीर- तलवार, तसव्वुर- अनुध्यान, मैखाना- मधुशाला, शहनाज़े लाला रुख़- लाल फूल जैसे मुखड़े वाली, काशाने- मकान, इशरत- सुखभोग, फ़ितरत- स्वभाव या प्रकृति, हमनवा- साथी, तूफ़ाने-बला- विपत्तियों का तूफ़ान, वा- खुले हुए, अहदे-वफ़ा- प्रेम निभाने की प्रतिज्ञा, माहताब-चांद, अमामा- पगड़ी, मुफ़लिस- ग़रीब, शबाब- यौवन, मज़ाहिर- दृश्य, सुल्ताने जाबिर- अत्याचारी बादशाह, शबिस्तां- शयनागार, क़स्रे सुल्तान- शाही महल
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अनिल सिन्हा

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