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19.10.07

वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता, दुनिया के सबसे ख़तरनाक खाऊ लोग हैं!

इलाहाबाद और बीएचयू में जब हम लोग कविता पोस्टर लगाते थे तो उन पोस्टरों पर जो कविताएं होती थीं, उनमें वीरेन डंगवाल की कविताएं भी थीं। शुरुआत में वीरेन दा से परिचय इन्हीं कविताओं के जरिए हुआ। लखनऊ में जब एक अखबार की नौकरी से निकाला गया तो बेरोजगारी के उन दिनों में कहीं से पता चला कि वीरेन दा कानपुर में अमर उजाला के संपादक हैं। उन्हें फोन मिलाया, कविता पोस्टरों का हवाला दिया, अपनी हाल में प्रकाशित रचनाओं का जिक्र किया और नौकरी मांग ली। उन्होंने प्रेम से बात की, मिलने के लिए बुलाया। मुलाकात हुई और बात हुई। उसी पद व पैसे में (ट्रेनी, २००० रुपये) नौकरी का आफर दिया जो लखनऊ में करता था। बावजूद इसके, मैं बेहद प्रसन्न था। मुझे खुशी इसलिए हुई क्योंकि लखनऊ में उद्दंडता इतनी कर चुका था कि वहां नौकरी मिलने के चांस खत्म हो चुके थे, और कानपुर में नौकरी मिल गई। इससे ज्यादा खुशी इस बात से थी कि एक ऐसे संपादक के साथ काम करने का मौका मिला जो अपने लिखे के जरिए मेरे प्रिय रहे हैं। वीरेन दा के साथ लगभग तीन साल काम करने का मौका मिला। मैं कह सकता हूं कि वहां जितना सीखा, उतना बाद में कहीं नहीं। संभवतः उन्हीं दिनों की सिखाई से आज तक रोजी-रोटी की कमाई चल रही है। रिपोर्टिंग, डेस्क, संस्मरण, रिपोर्ताज, आत्मकथ्य के फंडे सीखने-समझने के साथ पेजीनेशन के गुण और गुर भी उसी कार्यकाल में सीखा। वीरेन दा से एक उत्कृष्ट मनुष्य के कई गुणों को आत्मसात करने की कोशिश की। उनकी सहजता, सरलता, कविताई, न्यूज सेंस, समाज व मनुष्य की समझ, आम आदमी से हमेशा जुड़ाव, मानवीयता...जाने कितने शब्द हो सकते हैं जिन्हें लिखूं तो भी अच्छाइयों को बयां नहीं कर सकता। खैर, यहां मकसद उनकी तारीफ के पुल बांधना नहीं, अपने पत्रकारिता के गुरु को याद करना व प्रणाम करना है। साथ में उनकी कुछ कविताएं फिर से पढ़ना और भड़ासियों को पढ़ाना है। साथ में यह संदेश देना भी कि बुरा बनकर आगे बढ़ने की कोई मजबूरी नहीं है। आप अच्छे मनुष्य बनकर भी बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं।
वीरेन दा से पिछली मुलाकात पिछले वर्ष बरेली में तब हुई जब मैं कानपुर में आईनेक्स्ट की नौकरी ज्वाइन करने मेरठ से जा रहा था। बरेली उनके यहां रुका, चाय-पकौड़ी खाई गई। वहीं पर मेरे ड्राइवर ने रोजा खोला। देर तक बतियाने के बाद रात में निकले, वीरेन दा की बातों और अदाओं को गुनते-बुनते, सोचते-मुस्कराते...।
रवि रतलामी जी और उनके रचनाकार का आभार, जहां से पूरी की पूरी रचना चोरी की है मैंने। उम्मीद है चोरी के एवज में वे कोई दंड नहीं देंगे क्योंकि उन्हें वैसे ही मैं बड़ा भाई और ब्लाग का गुरु मान चुका हूं। शिरीष कुमार मौर्य का भी आभार व्यक्त करना नहीं भूलूंगा जिन्होंने कविताओं का चयन किया और एक शानदार इंट्रो लिखा।
तो आज संडे को वीरेन दा की कुछ कविताओं का मजा लीजिए, साथ में दुआ करिए- हमारा प्यारा कवि और एक शानदार मनुष्य सदा भला चंगा रहे और जीवन में उम्र की सेंचुरी फिर डबल सेंचुरी मारे.....
यशवंत सिंह
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भारत की आज़ादी से ठीक 10 दिन पहले जन्मे वीरेन डंगवाल समकालीन हिन्दी कविता में लोकप्रियता और समर्पण, दोनों ही लिहाज से अपना अलग स्थान रखते हैं। उन्होंने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में चलकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। वे 1971 से बरेली कालेज में अध्यापन कर रहे हैं। इसके अलावा पत्रकारिता से उनका गहरा रिश्ता है और वर्तमान में वे दैनिक 'अमर उजाला' के सम्पादकीय सलाहकार है। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी ख़ुद की कविताएँ बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया में छपी है। वीरेन डंगवाल का पहला कविता संग्रह 43 वर्ष की उम्र में आया। 'इसी दुनिया में' नामक इस संकलन को रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) से नवाज़ा गया। दूसरा संकलन 'दुष्चक्र में सृश्टा' 2002 में आया और इसी वर्ष उन्हें 'शमशेर सम्मान' भी दिया गया। दूसरे ही संकलन के लिए उन्हें 2004 का साहित्य अकादमी सम्मान भी दिया गया। समकालीन कविता के पाठकों को वीरेन डंगवाल की कविताओं का बेसब्री से इन्तज़ार रहता है। वे हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवि हैं। उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का-सा विरल लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बेचैनी और बौध्दिकता एक साथ मौजूद है
प्रस्तुत हैं उनके पहले संकलन 'इसी दुनिया में' से छह चर्चित कविताएँ.........

हम औरतें
रक्त से भरा तसला है
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा
सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई
प्रेतात्माएँ
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा-मृग
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो !
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तोप
कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !
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पी.टी.ऊषा
काली तरुण हिरनी
अपनी लम्बी चपल टाँगों पर
उड़ती है
मेरे गरीब देश की बेटी
ऑंखों की चमक में जीवित है अभी
भूख को पहचानने वाली विनम्रता
इसीलिए चेहरे पर नहीं है
सुनील गावस्कर की छटा
मत बैठना पी.टी.ऊषा
इनाम में मिली उस मारुति कार पर मन में भी इतराते हुए
बल्कि हवाई जहाज में जाओ
तो पैर भी रख लेना गद्दी पर
खाते हुए मुँह से चपचप की आवाज़ होती है?
कोई ग़म नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के
सबसे ख़तरनाक खाऊ लोग हैं !
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इन्द्र
इन्द्र के हाथ लम्बे हैं
उसकी उँगलियों में हैं मोटी-मोटी
पन्ने की अंगूठियाँ और मिज़राब
बादलों-सा हल्का उसका परिधान है
वह समुद्रों को उठाकर बजाता है सितार की तरह
मन्द गर्जन से भरा वह दिगन्त-व्यापी स्वर
उफ़!
वहाँ पानी है
सातों समुद्रों और निखिल नदियों का पानी है वहाँ
और यहाँ हमारे कंठ स्वरहीन और सूखे हैं।
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कवि - 1
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँटकर
चबाता फुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज़ है
एक फेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप होकर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता ही रहूँगा
हर बार
भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा
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कवि - 2
मैं हूँ रेत की अस्फुट फुसफुसाहट
बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज़
मैं पपीते का बीज हूँ
अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों को
अपने भीतर छुपाए
नाजुक ख़याल की तरह
हज़ार जुल्मों से सताए मेरे लोगो !
मैं तुम्हारी बद्दुआ हूँ
सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा
गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं
मुझे छाँटो
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक दिन
उस लालटेन की तरह
जिसकी रोशनी में
मन लगाकर पढ़ रहा है
तुम्हारा बेटा।

चयन एवं प्रस्तुति - शिरीष कुमार मौर्य)
साभारः रचनाकार

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