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19.10.07

मोहब्बत की तबीयत......

मोहब्बत की तबीयत में
ये कैसा बचपना कुदरत ने रखा है
के ये जितनी पुरानी
जितनी भी मज़बूत हो जाए
इसे ताज़गी की जरूरत फिर भी रहती है
यकीं की आखिरी हदों तक
निगाह में लहलहाती हो
आंखों में चमकती हो
लहू में जगमगाती हो
इसे इज़हार के लफ्‍ज़ों की
चाहत फिर भी रहती है
मोहब्बत मांगती है यूं
गवाही अपने होने की
जैसे इक बच्चे की नादानी
शाम को बीज बोये
और रात में कई बार उठे
ज़मीन खोदकर देखे
के ये पौधा कहां तक है
मोहब्बत की तबीयत में
अजब तकरार सी क्यों है
के ये इज़हार के लफ्‍ज़ों को
सुनने से नहीं थकती
बिछड़ने की कोई घड़ी हो
या मिलने का कोई मौक़ा
इसे बस एक ही धुन है
कहो मुझसे मोहब्बत है
बुजुर्गों की कहावत है
किसी भी पल के रुक जाने की
ख्वाहिश दिल में मत करना
यकीं और उम्मीदों के बीच
कठिन-आसान रस्तों में
ना जाने............
बीते हुए कितने ही लम्हे हैं
कि जिनको रोकना चाहा
मगर हम रोक ना पाये
फिर ऐसी राह भी आई
के जिनको पार करने में
लगा, सारी उम्र गुज़री
शुमार वक्‍त में लेकिन
ये सब उतने ही लम्हे थे
के जिनको रोकने की आरज़ू में
ये रिवायत भूल बैठे थे
किसी भी पल के रुकने की
ख्वाहिश दिल में मत करना
.......................................रियाज़

मेरे दिल का दरवाज़ा खुला है
जिस तरह से चाहो आ जाओ
इस रियासत में अब वजीरे दाखिला कोई नहीं
पहले तो रहता था यहां कातिलों का इक हुजूम
अब तेरे सर की कसम तेरे सिवा कोई नहीं
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हादसे क्या हुए रस्ते में मुझे याद नहीं
आबले पांव के तफ्सीले सफर रखते हैं
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रियाज़

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