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13.11.07

भड़ास की ये स्पीड...बाप रे, नजर न लगे....

भड़ास को फिर से कम्युनिटी ब्लाग के रूप में शुरू करने के दो घंटे के अंदर कुल पांच मेंबर बन गए और पांच कमेंट भी आ गए। अरे, इतनी तेज स्पीड। दुश्मनों का कहना है कि जो तेज भागता है वही तेज गिरता है, भड़ाक से। और मुंह फोड़ लेता है, हाथ तोड़ लेता है। तो कहीं इस बार भी....। नहीं, बिलकुल नहीं। आशीष का सही कहना है, यशवंत जी, फिर झटका न दीजिएगा। तो भई, झटका नहीं, इस बार भड़ासियों को पुरस्कार मिलेगा, यह पक्की बात है, लालीपाप नहीं।

अरे ये लो,,,,,अपने भड़ासी गुरु अनिल सिन्हा और डा. सुभाष भदौरिया तो जैसे इसी इंतजार में बैठे थे कि भड़ासियों का फिर जुटान हो। लो गुरुवरों, फिर आ गए, उसी रंग और तेवर के साथ। बल्कि थोड़ा और खर। दोनों गुरुवरों को प्रणाम और नमस्कार और सलाम। उम्मीद है, वे अपने बिंदास और बेबाक अनुभवों, आइडियाज और फंतासियों से हम सभी को शिक्षित प्रशिक्षित करते रहेंगे। पेश है...भड़ास के फिर से शुरू होने के दो घंटे के अंदर आई पांच टिप्पणियों की एक झलक....इसमें कई टिप्पणी करने वाले साथी भड़ास के मेंबर नहीं बने हैं। मेंबर बनने के लिए वे बाईं और लिखे भेज रहा हूं न्योता के नीचे भड़ासी बनिए को क्लिक करें, अपनी ई-मेल आईडी और अपना वाला पासवर्ड डाल दें, बस नाम आ जाएगा मैं ऐसा क्यों हूं के नीचे.....तो भई आलोक, आपको मिल गया होगा आपके सवाल का जवाब........
जय भड़ास....

5 comments:
12 November, 2007 22:57
डॉ.सुभाष भदौरिया. said...
ये ग़ज़ल मैं अपने तमाम भड़ास के दोस्तों को पूरे एहतिराम के साथ नज़र कर रहा हूँ और गुज़ारिश करता हूँ कि उनका बयान ज़ारी रहे.उनके कलाम में गीता और कुरान की पाकीज़गी हैं जो मैने अक्सर महसूस की है.सतही तौर पर उनमें भाषाई नुक्श भले हों.अंदरूनी जज़्बात बड़े गहरे हैं जिन्हें मैं तस्लीम करता हूँ.
बकौले मीर तकी मीर
सारे आलम पर हूँ मैं छाया हुआ.
मुस्तनद है मेरा फ़र्माया हुआ.

डॉ.सुभाष भदौरिया.
ता.13-11-07 समय-1-00PM

ग़ज़ल भड़ास के नाम
तुम क्या गये की नेट की दौलत चली गयी.
ऐसा लगा कि अपनी मुहब्बत चली गयी .

है कीर्तन का दौर ये देखो तो दोस्त अब.
गाली में जो हयात थी उल्फ़त चली गयी.

गूँगों में एक तेरी ही आवाज़ थी भड़ास,
सच कहने की तो लोगों में शिद्दत चली गयी.

हम अपने ही ग़मों से परेशान थे बहुत,
जाने जो तेरे ग़म तो मसर्रत चली गयी.

हम आज भी हैं तेरे तलबगार जानेमन,
तेरी ये कब कहा कि ज़रूरत चली गयी.
12 November, 2007 23:41



आशीष said...
जय भड़ास

12 November, 2007 22:18
Basant Arya said...
पुरस्कार शुरू कर रहे है ये सराहनीय है. लगे रहो

12 November, 2007 22:42
आलोक said...
यशवंत जी,
मैं भड़ासी बनना चाहता हूँ। आपने यह तो लिखा ही नहीं कि भड़ासी बनने के लिए करना क्या होगा? या यह न्यौता केवल आपसे पहले जान पहचान रखने वालों के लिए ही है? मैं मीडिया से जुड़ा नहीं हूँ, उपभोक्ता के तौर पर खबर लूँगा ही, दूँगा नहीं।
आलोक

12 November, 2007 22:56
Sanjeet Tripathi said...
बहुत खूब!!
शुभकामनाएं बंधु!

1 comment:

Ashish Maharishi said...

मुझे तो आज लग रहा है सिधि विनायक जी के यहाँ जाकर लड्डू चढाना होगा...आखिर भड़ास फिर से आ गया है भाई..
जय भड़ास


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