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16.11.07

ये बाजार है बाबू, न मैं बचा, न तुम

कल दिन में खबर मिली, वाया एसएमएस। विनोद कापड़ी स्टार न्यूज से निकाल दिए गए। एसएमएस में साफ-साफ यही लिखा था। मैं उस वक्त मलयाला मनोरमा द्वारा होटल इंपीरियल में आयोजित फ्रीडम आफ प्रेस एट एज आफ वायलेंस विषय पर लेक्चर सुन रहा था। एसएमएस इगनोर किया। आफिस पहुंचा। काम निपटाया। शाम को जब घर के लिए चला तो ढेर सारे एसएमएस आए। कई फोन भी। कुछ मुझसे ही पूछ रहे थे, कुछ मुझे बता रहे थे। घर पहुंचकर कुछ लोगों से मैंने भी फोन कर पूछा। सबने कहा- हां भई, खबर सच है। क्यों, कैसे, किसलिए....। ये सारे ढेर सवाल हर पत्रकार के निकाले और रखे जाने के दौरान सुने-सुनाए जाते हैं लेकिन जब कोई निकाला जाता है तो उस समय ये बातें ज्यादा ही फैलती हैं। मुझे इस खबर से बस ऐसा लगा.....इतनी जल्दी कपड़िया गयो कापड़ी..... मुझे विश्वास नहीं हो रहा।

विनोद कापड़ी से मैं मिला नहीं हूं लेकिन मिलने के लिए टाइम लेने की कोशिश के दौरान उनसे दो-चार बातें हो गईं और उन्होंने अपने तेज दिमाग और खोजी पत्रकार वाले स्टाइल में सब कुछ सनसनी टाइप स्टिंग जैसा कर दिया और जैसा कि हर स्टिंग के बाद होता है, दोषी चाहे जो हो लेकिन कैमरे या रिकार्डर में जो फंसा है, गाज उसी पर गिरती है। नशे में गालीगलौज करने का आरोप और इसके प्रमाण में कापड़ी जी द्वारा किया हुआ स्टिंग।

हालांकि मैं अब भी अपनी ही गलती मानता हूं क्योंकि बड़े और सीनियर लोगों के लिए प्रोफेशन की किताब में बदतमीजी करना, हड़काना, कड़क बोलना.. उनके जन्मसिद्ध अधिकार की तरह दर्ज और निहित होता है। अगर मैंने उनसे मिलने की कोशिश के तहत फोन कर दिया और उन्होने डांट दिया या आड टाइम होने की बात कह दी तो मुझे तुंरत सारी बोलकर फोन बंद कर लेना चाहिए था लेकिन मैंने जवाब दे दिया, भई...प्यार से बोल लो, इतनी हेकड़ी भी ठीक नहीं। बात बढ़ती चली गई।

बाद में मैंने अपनी गलती के लिए कापड़ी जी से एसएमएस के जरिए माफी मांगी, अपने संस्थान से लिखित माफी मांगी। इसके पीछे मकसद नौकरी बचाने की कोशिश करना तो था ही, ऐसी अनचाही स्थितियों के भविष्य में न आने का बल पैदा करना भी था। इस बेहद प्रोफेशनल और कारपोरेट दौर में अराजकता की गुंजाइश बिलकुल नहीं है। ऐसा मैं मानता था और मानता भी हूं।

तो मैं कह रहा था कि विनोद कापड़ी से मेरी मिलने की तमन्ना के पीछे और कुछ नहीं बल्कि उनका अमर उजाला बरेली से शुरू हुआ करियर, अपने सीनियर साथी और पत्रकार स्वरगीय हरेराम पांडेय द्वारा विनोद कापड़ी आदि के आगे बढ़ने की कहानियों से उपजी उत्सुकता थी। मन में दूसरी बात भी थी, दिल्ली आये हो तो लोगों से मिलते जुलते रहो, तेल मक्खन लगाते रहो, न जाने कब कौन काम आ जाएगा। लेकिन यहां तो उलटा ही पड़ गया, तेल लगाने की कोशिश में वही तेल खौलने लगा और मेरे पर ही पलट गया।

मेरी दिली इच्छा है कि वे कापड़ी जी जल्द ही फिर कहीं बास बन जाएं। मैं कतई नहीं चाहता कोई पत्रकार या संपादक कभी बेरोजगार या बेकार रहे। हालांकि अब वो दौर भी नहीं रहा कि कोई बेरोजगार रहे क्योंकि हर रोज एक नया प्रोजेक्ट और वेंचर मार्केट में हाजिर है और उसके लिए लायक लोग नहीं मिल रहे। इसलिए कापड़ी जी कल को फिर किसी जगह सुपरबास की भूमिका में होंगे ही, ये मैं मानकर चल रहा हूं लेकिन एक अनुरोध है, छोटों को हमेशा प्यार दीजिए, वे आपके लिए जान देंगे। अगर बड़े पद पर जाकर विनम्रता बरकरार न रखी जा सके तो इसका मतलब जो अंदर का मनुष्य है वो बहुत छोटा है।

खैर, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय।

देवांग की एनडीटीवी से बेदखली को उस समय इसी रूप में लिया गया था कि वे मनुष्येतर हो चुके थे और सीधे मुंह बात करना उनकी शान के खिलाफ हो चुका था। मतलब आम आदमी और आम पत्रकार से फोन और आफिस में बदमतीजी से पेश आना उनकी शगल में शामिल था, ऐसा बताया गया। मेरा निजी अनुभव भी कुछ ऐसा ही था।

अभी पता नहीं चला कि देबांग आखिर हैं कहां और क्या कर रहे हैं।

स्टार न्यूज के कई साथियों ने खबर दी कि विनोद कापड़ी के स्टार से हटाए जाने का मेल सारे इंप्लाइज के पास आ चुका है। 15 नवंबर उनका लास्ट वर्किंग डे था। मेल में कापड़ी जी के बारे में ढेर सारी और भी बातें कही गई हैं जिनका उल्लेख यहां करना उचित न होगा।

आगे क्या....अब कोई कह रहा है कि वे बैग ज्वाइन करने जा रहे हैं तो कोई एनडीटीवी में जाने की बात कह रहा है। अच्छा है, जहां भी जाएं, फूले-फलें लेकिन सहजता और सरलता के साथ। अपन की और सारे भड़ासियों की दुवायें-शुभकामनाएं उनके साथ है।

चलिए, कापड़ी जी...आप भी जल्द ही मेरी तरह कुछ दिनों की बेकारी के बाद कहीं नई नौकरी करते दिखिए।

निष्कर्ष साफ है....मार्केट उर्फ बाजार में अगर कोई बडे़ पद पर है तो वो पद शाश्वत नहीं है। कुछ क्षण का तमाशा है सब। अगर वो पद पीछे से हट जाए, खिसक जाए, खिसका दिया जाए तो क्या बचता है...बस वही देह मांस का पुतला। शाश्वत है तो सिर्फ मनुष्यता, सहजता और सरलता। यही वो बेसिक चीजें हैं जो ऊंचे पद से नीचे गिरने के बाद भी आपको लोगों के नजरों से गिरने नहीं देती है।

श्रद्धांजलि....
: सहारनपुर में आईबीएन के पत्रकार नीरज चौधरी के निधन की दुखद सूचना से मर्माहत हूं। नीरज से दो-तीन अच्छी मुलाकातें थीं। एक बार सहारनपुर में होटल में रात में देर तक बैठे थे। एक बार नीरज दिल्ली आए थे, रियाज के साथ तो काफी देर तक बतियाते गपियाते और पीते खाते रहे। संभावनाओं से भरा चेहरा और चमकती आंखें अब भी याद हैं। छोटे जिले से होने के बावजूद जो पत्रकारीय चपलता और तेवर उनमें थे, वे ढेर सारे दिल्ली वालों में देखने को नहीं मिलते। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और परिजनों को इस दुखद घड़ी में खुद को संभालने का संबल।

भड़ासियों से अनुरोध है कि वे इस आकस्मिक मौत की घड़ी में अपनी संवेदना व्यक्त करें। एक प्रस्ताव है, अगर हम सभी उस परिवार की कुछ आर्थिक मदद कर सकें तो ज्यादा अच्छा है। इसके लिए क्या किया जाना चाहिए...हम सब सोचें। भविष्य में भी ऐसी दुखद स्थितियों के कारण परिवार पर आने वाली विपदा को कम करने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है, इस बारे में हम सभी पत्रकारों को सोचना चाहिए। आज जो व्यक्तिवाद और पैसे का दौर है उसमें हम दूसरों के दुख और पीड़ा से खुद को बस केवल कुछ क्षण तक ही जोड़ पाते हैं और फिर लग जाते हैं अपने काम में। मेरा मानना है कि हम सभी पत्रकार भाइयों को एक सामूहिकता विकसित करनी चाहिए ताकि सुख में न सही, दुख में तो काम आवें.....

यशवंत सिंह

2 comments:

Ashish Maharishi said...

यशवंत जी नीरज जी वाली न्यूज़ काफी दुखी करने वाली न्यूज़ है.. आपका प्रस्ताव काबिले तारीफ है..मेरे लिए कोई आदेश हो तो कहें.

http://bolhalla.blogspot.com

Anita kumar said...

यशवंत जी हम आप से बिल्कुल सहमत है कि बाकी रहती है तो मनुष्यता। एक कहावत है अग्रेजी में कि ऊपर चढ़ने के वक्त सबसे प्यार से मिलते जाओ किसी के कंधे पर पावं न रखो, कोई ऊपर नहीं बैठा रहता, नीचे आते वक्त इन्ही लोगो से फ़िर पाला पढ़ेगा और अब वो ऊपर जा रहे होंगे।