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21.1.08

अंतर्मन की कांव-कांव

"मीडिया से संपादकीय नैतिकता की उम्मीद नहीं करनी चाहिये" । यथार्थ का आज दिखने वाला चेहरा ऐसा ही है लेकिन पत्रकारिता के प्राण बसते हैं नीतिगत जीवन मूल्यों में । यह आभासी सत्य उन लोगों को अपने प्रभाव में ले सकता है जो कोई रोजगार विकल्प न होने की मजबूरी में इस "राम-रोज़गार" में आ गये होंगे । अगर सत्यतः पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है तो उसे हर हाल में नैतिक होना ही पडे़गा वरना न्यायपालिका ,कार्यपालिका और विधायिका अनैतिक हो जाएं तो पत्रकारों को क्या हक है छिद्रान्वेषण कर दोष निकाल कर उछल-कूद करने का ? क्रांति शब्द इतना डरावना नहीं है कि सुनते ही ’खली-वली’ होने लगे । रचनात्मक परिवर्तन ही मेरी पत्रकारिता का लक्ष्य है । जहां एक ओर ९९% मुम्बई का मीडिया मैराथन के कवरेज के लिये दौड़ रहा है वहीं मैं महासनीचर ठहरा ,गया ही नहीं । मैं समाज की मुख्य धारा से कटे हुए लोगों से बातें करता रहा ,मनीषा से मिला और उनकी पीड़ा को समझा (मनीषा लैंगिक विकलांग हैं लोग इन्हें यक्ष ,गन्धर्व ,किन्नर ,वानर न जाने क्या-क्या कहते हैं पर इन्सान सा नहीं मानते ) । हम और हमारे जैसे लोग तो परिवर्तन के लिये संघर्ष करेंगे चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े । बहुत लिखा जा सकता है लेकिन जैसे जैसे कलम आगे जायेगी उबाल बाहर आएगा और फिर बात विवाद के रूप में आ जायेगी । सभी भड़ासी बन्धुओं से एक हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि जिन पत्र-पत्रिकाओं ने देश में पत्रकारिता को जना है यदि उनकी प्रतियां मिलें तो जरूर पढि़ये तथा तब की और आज की परिस्थितियों में तुलना करियेगा । मेरी नजरों में तो रतौंधी और दिनौंधी दोनो है शायद इसीलिये कुछ बदलाव नहीं दिखता । वे पत्र-पत्रिकाएं हैं -
उदन्त मार्तन्ड ,बंगदूत ,प्रजामित्र , सामदन्त मार्तन्ड ,समाचार सुधावर्षण ,भारत मित्र ,उचितवक्ता ,सारसुधानिधि ,बिहार बन्धु , हिन्दी बंगवासी ,मतवाला ,न्रसिंह ,वैश्योपकारक ,देवनागर ,हरिश्चंद्र पत्रिका , हिन्दू , हिन्दी केसरी ,हिन्दू पंच वगैरह-वगैरह । याद रखिए कि इनमें रणभेरी ,चण्डिका ,डंका , क्रांतिघोष जैसे नाम नहीं लिखे हैं ।
फिर बताइए कि अगर मैं ऐसा हूं तो इसमें मेरा क्या दोष है । फिर कहूंगा जो मेरे गुरूदेव कहते हैं पत्रकार के लिये "पतनात त्रायते इति पत्रकारः" ।

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