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21.6.08

हो गई पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए

कवि दुष्यंत कुमार ये पंक्तियाँ आज के हालातों में कहीं अधिक प्रासंगिक हैं लगती की
' हो गई पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए, सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है की सूरत बदलनी चाहिए, मेरे सीने में न सही, तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, मगर जलानी चाहिए '
आज देश भ्रष्टाचार की आग में धधक रहा है, महंगाई आसमान छू रही है, सभी जानते हैं की वित्तमंत्री पी चिदम्बरम और pradhanmantri मनमोहन सिंघ प्रयासों के बाद भी महंगाई क्यों दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ रही है,
देश के जमाखोरों ने anaj, बीजों का स्टॉक भर लिया है, दम बढाकर वे इसकी कालाबाजारी करना चाहतें है, लेकिन सब जानते हुए भी पुलिस-प्रशासन या सरकार kade kadam क्यों नही उठा रही है। अभी हाल ही में महाराष्ट्र में सरकार के छापों में जमाखोरों के पास कई क्विंटल अनाज जप्त किया गया था, जो उन्होंने कालाबाजारी करने के लिए जमा कर रखा था।
दरअसल हम केवल सरकारी तंत्र को दोषी नही ठहरा सकते, क्योंकि हम प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में रहतें हैं, यहाँ सत्तारूढ़ सरकार से अधिक शक्तिशाली प्रजा yani जनता होती है, लेकिन हिंदुस्तान की भोली या यूँ कहें उदासीन जनता को अपने अधिकारों से कुछ अधिक लेना-देना नही है, तभी तो वो भूखी मारती रहती है और उसके हिस्से की मलाई कोई और ही nigal जाता है। यहाँ सामाजिक sangthan भी हैं मगर किसी काम के नही, we भी तभी तक हो-halla machate हैं जब तक unhe मीडिया covrez मिलता है।
तभी तो किसी khoob ही कहा है की
' इन्सान में हैवान यहाँ भी हैं, वहां भी,
अल्लाह nigehbaan इधर भी है, उधर भी,
खूंखार दरिंदों के फकत नाम अलग हैं शहर में बियाबान यहाँ भी हैं, वहां bhii '

priyanka kaushal

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