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27.6.08

डर

मेरे पड़ोस मे गिलहरी आती है
मेरे घर मे भी गिलहरी आती है
मेरे पड़ोस मे गौरैया भी आती है
मेरे घर मे भी गौरैया आती है

मेरे पड़ोस मे कई तरह के भय आते हैं
मेरे पड़ोस मे कई तरह के अपराध होते हैं

मगर फिर भी मेरे पड़ोस मे
गौरैया और गिलहरी दोनों आते हैं

कभी कभी मेरे घर पर भी!
मित्रों, मैं अब क्या करूँ
मुझे अब गौरैया और गिलहरी
दोनों से डर लगने लगा है!!

शशि भूषण द्विवेदी

2 comments:

Unknown said...

शशिभूषण द्विवेदीजी आप की कविता भय और असुरक्षा के बीच पनपती जिजीविषा का एक जीवंत उदाहरण है। आप ऐसा ही और लिखते रहें,मेरी अनेक शुभकामनाएं।
पं.सुरेश नीरव

यशवंत सिंह yashwant singh said...

संवेदनशील लोगों के लिए यह समय काफी पीड़ादायी है। समझ में नहीं आता कौन अपना है, कौन पराया है। कौन इंसान है कौन शैतान है। कौन मानवीय है, कौन अमानवीय है। गिलहरी और गौरैया परंपरागत रूप से बेहद संवेदनशील, मानवीय, निर्दोष, डरे हुए प्रतीकों में माने जाते हैं। इन प्रतीकों को आपकी इस कविता ने उलट दिया और सोचने पर मजबूर किया कि अगर कोई अबोध व निर्दोष इसी तरह हर इस उस (सही गलत) घर में मुंह मारे तो वो काहें के निर्दोष और मानवीय। उनसे प्यार करने के साथ साथ डरने के बारे में भी सोचना चाहिए....। यह अत्याधुनिक डर है। यह नया डर है। इसकी शिनाख्त होनी चाहिए। अब हर निर्दोष और अबोध पर शक करने का वक्त है क्योंकि ऐसी ही छवियां चुपके से हिंसा के हथियार लेकर हमारे बेडरूम तक पहुंच जाती हैं और हम भरोसे में मारे जाते हैं।

...शायद मैं कह नहीं पा रहा .....लेकिन आपकी कविता के भाव बहुत गहरे हैं, मेरी व्याख्या बेहद स्थूल है।....

आपकी कविता के डर को मैंने अपने वास्तविक जीवन में घटित होते देखा है।

शुक्रिया....बेहतरीन कविता के लिए...
यशवंत