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21.9.08

भूली-बिसरी यादें......

"आज मैंने अपनी ज़िन्दगी का एक वर्ष मुकम्मल कर लिया है यानी आज मै एक साल का हो गया हु , पर आज किसी ने मेरे जन्म दिवस की बधाई नही दी। "

मेरी ये बातें सुन कर शायद आप कुछ हैरान से हो रहे होंगे,पर ये सच है। पिछले वर्ष आज ही के दिन मैंने एक नई ज़िन्दगी पायी थी। वो भी मौत के अपनी आंखों के सामने से देख कर।

हाँ ! मैंने अपनी मौत को अपनी आंखों से देखा है। आज भी मुझे वो तमाम दृश्य याद हैं। सारे के सारे दृश्य किसी फ़िल्म की भयानक सीन की तरह मेरे दृष्टिपटल पे चल रहे हैं। दिमाग कभी हर शॉट को जूम इन कर रहा है तो कभी जूम आउट । कभी आँख कैमरे की तरह पैन करते हुए किसी ख़ास शॉट पर आकर रुक जाती है, और कभी-कभी शॉट इतने जूम आउट हो जाते हैं कि कैमरे की तरह आंखों के सामने अँधेरा छा जाता है।

22 सितम्बर 2007 की शाम ...... रोज़ की तरह आज भी इफ्तार के बाद जाकिर नगर कुछ खाने व मार्केटिंग के मूड में गया था। रात के आठ बजने को थे। मेरे मोबाइल कि घंटी बजती है। देखा तो मेरे दोस्त पुनीत का मैसेज दस्तक दे रहा था। उसने लिखा था-"अबे पत्रकार! कुरान पे लात मारने कि बात सही है क्या....?"

मैं कुछ समझ पाता कि फिर से मेरे मोबाइल कि घंटी बज उठी। राष्ट्रीय सहारा हिन्दी के एक पत्रकार मित्र मुझ से पूछ रहे थे-"बटला हाउस में अभी गोली चली है क्या?"

मैं गलती से बटला हाउस चौक पर ही मौजूद था। मुझे उनकी बातें सुन कर काफ़ी हैरानी हुई। बहरहाल "नही" का जवाब मैंने उन्हें दे दिया। अभी फ़ोन काटा ही था कि फिर घंटी बजने लगी। मेरी एक मित्र मुझसे पूछ रही थी कि तुम कहाँ हो....? मैं कुछ बोलता कि उससे पूर्व उसी ने मुझे ये फतवा सुना दिया कि जहाँ कहीं भी हो, घर जाओ, ज्यादा हीरो बनने कि ज़रूरत नही है....

पटना से मेरी एक दोस्त ने जानना चाहा- " सुना है की जामिया नगर में कुरान की बेहुरमती को लेकर हंगामा बरपा है। तुम्हे इस सम्बन्ध में क्या ख़बर है? मैं क्या जवाब देता। मैं तो ख़ुद बेखबर था।

बात करते करते मैं घर पहुँच चुका था। मेरे फ़ोन की घंटी बार बार बज रही थी। मेरे अखबार के दफ्तर से कहा गया की मैं इसकी रिपोर्टिंग करूँ। दुसरे अखबारों के भी पत्रकार मित्र मुझे फ़ोन कर रहे थे।मैं इतने में घर से बाहर निकलता हूँ। लोगों की भीड इधर उधर भाग रही थी। तमाम दुकानों के शटर गिर चुके थे। घरों के दरवाज़े बंद हो रहे थे। भागो...... भागो..... ठहरो.....ठहरो....की आवाजें फिजा में गूंज रही थी। लोग एक-दुसरे से पूछ रहे थे की क्या हुआ....? क्यूँ हुआ...? कैसे हुआ...? आदि-अनादी।

"नारे-तकबीर,अल्लाहो-अकबर" की सदा गूंज उठती है। फिजा की कैफियत बदल जाती है। भीड पागल हो चुकी थी। मैं आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ। एक व्यक्ति शफ़क़त भरे लहजे में कहता है- आगे मत बढो...! खतरा हो सकता है। मैं खतरा मोल लेते हुए आगे बढ़ता जाता हूँ। गोलियों के तडतडाहत की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। मैं वापस पीछे की ओर भागता हूँ। भीड से हटने के बाद मैं ख़ुद को आंसुओं में पाता हूँ। आंखों से लगातार पानी गिर रहे हैं। मैं पीछे हटता जाता हूँ। लेकिन आंसों गैस के गोले मेरा पीछा नही छोड़ रहे हैं.........

सैकडो-हजारों लोग सडको पर जगह-जगह तरह-तरह की बातें कर रहे हैं....पुलिस ने कुरान की बेहुरमती की है.... पुलिस ने जान बुझ कर ऐसा किया होगा........ मेरा ख्याल है कि अनजाने में हो गया है ..... सब सरकार करा रही है...... हाँ! तुम सही कह रहे हो, इलेक्शन नजदीक आ रहे हैं.....ये लो नमक! हिम्मत हारने की ज़रूरत नहीं है......लोग पागल हो रहे हैं..... खामोशी के साथ मामले को हल कर लेना चाहिए......

तभी देखता हूँ कुछ लोग एक ज़ख्मी नौजवान को एक ठेले पर भीड़ की तरफ ला रहे हैं। इसे तुंरत नजदीक के एक डिस्पेंसरी में दाखिल कराया जाता है। लोगों की भीड़ उग्र हो चुकी थी. एक पुलिस वाले को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया. इलाके के तीनो थाने आग के हवाले थे.

हालात इतने गंभीर हो चुके थे की कुछ कहा नहीं जा सकता। बी।बी.सी. के पत्रकार मित्र (जो उस समय मेरे साथ ही थे) ने कहा की- आप अपना हैंडीकैम ले आओ. फिर मैं एक पत्रकार मित्र के साथ हैंडीकैम ले कर हाज़िर हो गया. तब तक खबर आई की तीन और लोगों को गोली लगी है, उन्हें पास के होली फैमली हॉस्पिटल में भरती कराया गया है. खैर मैं रिकॉर्डिंग करने लगा. मेरे यहाँ का हर शॉट बहुत खास था. कैमरा देख कर लोगों में और जोश भर आया. एक बार फिर नारे लगने लगे थे.

तभी अचानक सैकडो लोगों की भीड़ हमारे तरफ बढ़ने लगी। ..... इससे पहले मुझे दूसरी दुनिया में पहुंचा दिया जाता की कुछ लोग मेरी हिफाज़त में खड़े हो गए। दरअसल, ये मेरे अल्लाह के फ़रिश्ते थे. खुद पीटते रहे, लेकिन मुझे एक खरोंच तक नहीं आने दिया. उधर लोग कुछ ज्यादा ही उग्र हो चुके थे.

मारो...... मारो...... जासूस है...... मीडिया का आदमी है...... नहीं! नहीं! पुलिस का आदमी है....... अरे नहीं यार! ये अपना लड़का है..... अरे अपना भाई है.....अरे यहीं रहता है.......नहीं! मारो साले को..... कैमरा छीन लो...... तोड़ दो साले को.... अरे पागल हो गए हो क्या....... ये अपना बच्चा है..... जाओ अपना काम करो...अरे ऐसे कैसे छोड़ दे साले को..... हमारी तस्वीरें ले रहा था हरामी......

मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ।?मेरे पैरों तले की ज़मीं खिसक चुकी थी। दिल की धड़कने अपने-आप रुकने लगी थी। मैं समझ चूका था की आज मैं बचने वाला नहीं.... तरह-तरह के ख्याल दिमाग में आ रहे थे....... या तो मैं बचूंगा या अपने कैमरे की कुर्बानी देनी होगी. फिर अचानक मैं ने अंतिम हथकंडे के रूप अपने कैमरे से कैसेट निकाल कर उनके हवाले कर दिया. जिसका उन्होंने एक-एक एटम अलग कर दिया होगा. फिर सैकडो लोग अपनी सुरक्षा में मुझे मेरे घर सही-सलामत पहुंचा दिया. मैंने खुदा का शुक्रिया अदा किया.

मेरे मोबाइल की घंटी के बजने का एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ,जो छोटे बच्चे की तरह चुप होने का नाम ही नहीं ले रही है। क्या हो रहा है....... हालात कैसे हैं...... ये सुनने में आ रहा है....... वो सुनने में आ रहा है..... अफवाहों का बाज़ार गरम है...... एक टेलीविजन चैनल वाले का कैमरा छीन लिया गया है......एक रिपोर्टर को लोगों ने मार दिया...... पुलिस ने मीडिया को भगा दिया....... तुम कैसे हो...... ज्यादा काबिल मत बनो....... चुपचाप कल की ट्रेन से वापस घर आ जाओ......ज्यादा हीरो बनने की ज़रूरत नहीं है.......

बाहर अभी भी भागो.... भागो....ठहरो....ठहरो....., नारे-तकबीर की सदा बुलंद हो रही थी। पुलिस भीड़ पर काबू पाने में कामयाब हो गयी। सैकडों लोगों को गिरफ्तार किया जा चूका था. जिन में अभी कुछ की तादाद में लोग जेलों में सड़ रहे हैं. हो सकता है की शायद वो निर्दोष हो..... खैर, बटला हाउस का नया मामला अब सामने है। इसलिए पुरानी कहानी को भूल जाने में ही भलाई है।

----अफरोज आलम 'साहिल'

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