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21.1.09

यही जीवन है

विनय बिहारी सिंह

कल केला बेचने वाले ने कहा- सर, कल रात सामने की बिल्डिंग के दरबान ने हम लोगों से दो घंटे तक बातचीत की। बिल्कुल मजे से बात हुई। आज यहां केला बेचने आया तो पता चला- उस दरबान की मौत हो गई। बताइए, यह कैसे हो गया? मुझे लगा कि भीतर से वह इस घटना से हिल गया है। नौजवान लड़का है। इस तरह का उसका यह पहला अनुभव है। मैंने कहा- यही जीवन है भाई। किसी संत कवि ने कहा है- पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जाति। पानी के बुलबुले जैसा मनुष्य की नियति है। क्या पता पानी का बुलबुला कब फूट जाए। फिर भी बेईमानी करने के लिए कुछ लोग किसी हद तक गिरे जा रहे हैं। किसी का नुकसान कर, किसी को कष्ट देकर भी अपना भला हो रहा है तो वे खुश हो जाते हैं। उन्हें नहीं पता कि एक दिन यह सारा बेईमानी का पैसा धरा रह जाएगा। इसके जवाब में वे कहेंगे- धरा कैसे रह जाएगा? मेरे बाल- बच्चे इसका उपभोग करेंगे। लेकिन भाई, आप तब कहां रहेंगे, सोचा है? कैसे बाल बच्चे? उनके भी बाल- बच्चे होंगे। फिर उन बाल- बच्चों के भी बाल- बच्चे होंगे, फिर उनके बच्चे। औऱ इस तरह आप भुला दिए जाएंगे। क्योंकि सात पीढ़ी या आठ पीढ़ी के पूर्वजों को कौन याद रखता है? हमारा मोल मिट्टी के बराबर है। इसलिए- १०० प्रतिशत अगर अपने प्रति सोचते हैं तो क्यों न कल से अपने लिए ९९ प्रतिशत ही सोचें और एक प्रतिशत दूसरे जरूरतमंद लोगों के लिए सोचें। सिर्फ एक पैसा। तब हमारा विस्तार हो जाएगा। हम सिर्फ अपने में नहीं सिमटे रहेंगे।

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