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18.2.09

चरैवती चरैवती

हाथों मे रोटिया हुआ करती थी
और साथ मे आचार
मटके मे भरे पानी से
बुझ जाती थी प्यास
मन मे उमंगें भरी
सपनो मे था सारा संसार
मिटटी की सोंधी महक मे
अपनापन था
और टिपटिप बरसते पानी मे
भाईचारा

फिर जाने कब प्यार हुआ
और रोटियां फीकी लगने लगी
अब आचार मे भी नही मिलता था
स्वाद
बिसलरी की बोतले भी
ना बुझा पाती थी प्यास
सपनो के रंग एकाकार हो गये
और बेचैनी ने ले ली उमंगों की जगह
ना जाने किस खोज मे मन भटकता था
'युरेका, युरेका कहने को तरसता था

और फिर ख़त्म हुआ ये ज्वार
अब तो रोटी भी नही चाहिये
और ना ही बर्गर या कोक
बिसलरी तो बीती, शराब से भी
नही बुझती है प्यास
सपने के रंग चले गये
मन हुआ देवदास

पर ख़त्म नही हुआ इंतजार
गतिमान है जब तक समय का चक्र
यूँ ही रंगों बदलते रहेंगे जीवन के
फिर भी जीवन चलता ही रहेगा
चलता ही रहेगा
चरैवती चरैवती...

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