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24.6.09

कर्ज की शिक्षा

-राजेश शुक्ला-

उदारीकरण की सबसे बडी मार जिस सेक्टर पर पडी है वह है शिक्षा। अब शिक्षा राज्य का उत्तरदायित्व नहीं है। दिन प्रतिदिन बढती शिक्षा संस्स्थानों फीस, ट्यूशन की फीस तथा कैरियर की अफरातफरी में अभिवावक पसीने पसीने हो रहा है। शिक्षा का मौलिक अधिकार कही न कहीं सरकार ने खत्म किया है। इधर के बीच जिस तरह से शिक्षा में कर्ज की प्रवृत्ति बढी है वह खतरनाक है। एक मध्यम वर्गीय परिवार जिसकी कमाई २०००० रूपये प्रतिमाह है वह अपने दो बच्चों के उच्च शिक्षा का भार वहन करने में अक्षम है। मेट्रो शहरों में तो शायद वह एक बच्चे को भी एक अच्छी उच्च शिक्षा नही दे सकता।

उच्च शिक्षा एक प्रावेटाईज्ड सेक्टर बनता जा रहा है जिसको वही प्राप्त कर सकता है जिसकी जेब भारी हो। इन पाँच सालों में जिस तरह से बैंको शिक्षा लोन का प्रचार किया है तथा अभिभावकों ने कर्ज लेकर बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिये कर्ज पर कर्ज लिये हैं वह उनके लिये मूसीबत ही बना है। ज्यादातर माममलों में अभिभावकों का कर्ज लिया हुआ पैसा कुकुरमुत्ते की तरह उग आये प्राईवेट विश्वविद्यालयों, ईन्जिनियरिंग कालेजों, मेडिकल कालेजों को चढावा चढ गये हैं। इस दशक में शिक्षा आम जनता के दायरे से दूर होती गई है। क्या आने वाले एक दशक में यह आम जनता के लिये एक सपना हो जायेगा? शिक्षा में ठग विश्वविद्यालयों और संस्थानों की बाढ आ गई है जिससे जनता त्रस्त है। शहरों में विदेशी ऐफिलियेट्स ने अपने ताम झाम से हजारों परिवारों तथा स्टूडेन्ट्स की जिन्दगीयाँ बर्बाद की है।

उच्च शिक्षा भारतीय मध्यवर्ग की पहूँच से भी बाहर होती जा रही है, उच्च शिक्षा की महँगाई दश वर्षों में कमोवेश बीस गुनी हुई है। आज औसतन एक विश्वविद्यालय में पढने वाले बच्चे का मासिक खर्च एक छोटी तनख्वाह के बराबर है। दिल्ली विश्वविद्यालय में बाहर से पढने आया एक स्टूडेन्ट पर कम से कम खर्च यदि वह अकेले रहता है तो ८ हजार रूपये है। स्पष्ट है कि यह एक बहुसंख्यक मध्यवर्गीय परिवार की पहूँच से बाहर है जिसकी आमदनी मासिक २०-२५ हजार हो। मध्यवर्ग के उस तबके की बात नही कर रहा हूँ जो देश की जनसंख्या का ५ प्रतिशत है। यह शिक्षा सिर्फ उसकी पहूँच में ही दिखती है, अब गाँव में रहने वाले एक आध्यापक, छोटी तनख्वाह वाला अधिकारी शायद ही अपने बच्चे को दिल्ली या इलाहाबाद भेंज कर पढा सके। शिक्षा लोन वह उस उच्च शिक्षा के लिये तो ले ही नहीं सकता जिसका भविष्य नही होता मसलन सोशल साईन्सेस या कला विषय अर्थात ये विषय सिर्फ वे पढ सकते हैं जो भोग-विलासी हैं।

मध्यवर्ग को वह शिक्षा ठूँठनी होगी जिससे जल्द से जल्द उसकी सन्तान कोई नौकरी पा ले। शिक्षा अब रूचि का विषय नहीं है क्योंकि रूचि के अनुसार पढाई पढने की स्वतंत्रता देश के बहुसंख्यक मध्य वर्ग को नहीं है, यह तो अब देश के ५ प्रतिशत बुर्जुआ कहे जाने वाले वर्ग के अधिकार का विषय है। लोन लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने की बाध्यता को इस दश की बहुसंख्यक आबादी कब तक सहन कर पायेगी? आश्चर्य इस बात का है कि जनता के हितों की बात करने वाली तमाम पार्टियों ने इस चुनाव में इस क्राँन्तिक स्तर पर पहूँचते विषय को छूआ तक नहीं। उन पार्टियों की हार का एक बडा कारण यह भी है, ये पार्टियाँ जनता के मुद्दों से अवगत नहीं है। यह आज का सबसे ज्वलनशील प्रश्न है जिसको सामने रखने की जरूरत है।

इस स्थिति की जिम्मेदार सिर्फ एक ही पार्टी है वह है काँग्रेस। जरा सोंच कर देखे एक १०वी के विद्यार्थी की ट्यूशन फीस के बारे में । दिल्ली शहर में प्रति विषय यह फीस कम से कम ३०० सौ रूपये है यानी प्रतिमाह ६ विषयों के हिसाब से १८०० रूपये जिसमें यदि स्कूल फीस तथा पढाई अन्य खर्चे जोड दिये जाय तो यह कमोवेश ५००० रूपये पहूँच जाती है। यह एक बच्चे की हाईस्कूल की एक मध्यम स्तर के स्कूल की पढाई का सम्भावित खर्च है। जरा सोंचे इस देश की कीतनी आबादी अपने दो बच्चों का यह खर्च ठोने में सक्षम है। आज जनता के सामने यह सबसे बडा प्रश्न अपने बच्चों की शिक्षा का है क्योंकि वे ही उनका सपना है, उनका भविष्य हैं। काँग्रेस की शिक्षा नीतियों का यह खामियाजा जनता अब भुगतने के लिये तैय्यार नहीं है।

इस देश का भविष्य अंधकार में है उसे उजाला चाहिये, शिक्षा का मौलिक अधिकार वापस चाहिये।

अन्त मे यह कविता

तीनों बन्दर बापू के / नागार्जुन

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के !
लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के !

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सर्वोदय के नटवरलाल फैला

दुनिया भर में जाल
अभी जियेंगे ये सौ साल
ढाई घर घोडे की चाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवरलाल

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