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22.1.10

अप्पन समाचार : एक ग्रामीण मीडिया आन्दोलन

मुझे आध्यात्मिक साधना के साथ काम करने में असीम आनंद की अनुभूति होती है । मेरा मानना है कि आदमी एक माध्यम है ईश्वर के काम को पूरा करने का । मैं यही मानकर कोइ काम करता हूँ । अपने सारे काम इश्वर को समर्पित कर देता हूँ . एसा करके मैं पहले से और अधिक उर्जा और आत्मविश्वास से लबरेज हो जाता हूँ . "अप्पन समाचार" जैसा प्रयोग भी कुछ इसी तरह के चिंतन व ऊर्जा की ताकत से संभव हो पाया . यह प्रयोग भी ईश को समर्पित !कुछ साल पहले तकरीबन साठ साल की बुधिया भूख व दवा के अभाव में मुजफ्फरपुर सदर अस्पताल के जीर्ण-शीर्ण बेड पर तड़पती हुई दम तोड़ दी . मल-मूत्र में सना उसके कंकाल शव को पता नहीं अस्पताल प्रशासन ने कहाँ ठिकाने लगाया होगा . पता चला उसका परिजन कई वर्षों से उस बूढी का सुधि लेना छोड़ दिया था . यह वाकया मीडिया की सुर्खियाँ नहीं बनी . सरैया प्रखंड का डोमन मांझी भी भूख व कुपोषण से लड़ता हुआ दम तोड़ दिया . इस घटना से कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की पोल तो खुलती ही है, जनता के साथ होने का दंभ भरने वाली मीडिया की नियत भी साफ हो जाती है . हर रोज सैंकडों बुधिया व डोमन काल के गाल में समा जाते हैं, लेकिन अखबारों के लिए इनके जीवन का कोइ मोल नहीं . मीडिया ने यह साबित कर दिया है कि सनसनीखेज खबरें, सेक्स, हारर, अपराध, गन्दी राजनीति को तरजीह देते हुए हम बाज़ार की ही बाजीगरी करेंगे . हमें पत्रकारीय धर्म और मिशन से नाता नहीं है . हम तो विज्ञापनी बाज़ार की चकाचौंध में अपना व्यवसाय चला रहे हैं . और आप जानते हैं कि व्यवसाय का गणित सिर्फ लाभ-हानि पर चलता है, मिशन के मनोविज्ञान पर नहीं . कुछेक अखबार भले अपवाद हो सकते हैं.निःसंदेह, एसे घटाटोप में ही किसी विकल्प की खोज होती है . "अप्पन" समाचार" की परिकल्पना भी इन्हीं विकल्पों की तलाश के क्रम में बिहार के मुजफ्फरपुर की माटी में साकार हुआ . पिछले पांच-सात सालों में जिन चीजों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, वह है मीडिया में आई गिरावट . मैं परेशां होता रहा कि जब लोकतंत्र का प्रहरी ही पथभ्रष्ट व बिकाऊ हो जाय तो लोकतंत्र का क्या होगा ? मुझे लगने लगा कि अब वैकल्पिक मीडिया को बढावा देने का समय आ गया है . बस क्या था ? मैंने गाँव के मुद्दे, खेत-खलिहान से जुड़ा सवाल, सामाजिक कुरीतियाँ, कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, गरीब-गुरबों का दर्द, गाँव की माटी में दफ़न होती लोकसंस्कृति, पर्यावरण, ग्रामीण प्रतिभाओं की सफल कहानियां, मानवाधिकार, महिला सशक्तिकरण, लोक-शिक्षण आदि मुद्दों पर प्रमुखता से अप्पन समाचार के जरिय फोकस करने का निर्णय लिया . और इस तरह शुरू हुआ एक छोटा परन्तु प्रभावकारी वैकल्पिक मीडिया आन्दोलन, जिसकी चर्चा बिहार के एक सुदूर गाँव चान्दकेवारी के खेत के मेड़ से होता हुआ सात समुन्दर पार पंहुच गया . सरैया की पूजा. जो इस ग्रामीण समाचार चैंनल के लिए रिपोर्टिंग का काम करती थी के मोबाइल पार एक दिन जर्मनी से "वायस ऑफ़ जर्मनी" का फोन आया तो वह रोमांचित होकर बातें की . उसका पूरा परिवार खुश था. अप्पन समाचार की खुशबू, अनीता, रूबी, रुमा के परिवारवाले भी बेहद खुश थे अपनी बेटियों व पतोहू की कहानियों को अखबारों के पन्नों व टीवी स्क्रीन पार देखकर . गाँव की लड़कियों ने जब पहली बार अपने अनगदे हाथों से जब कैमरे संभालना शुरू किया तो आस-पड़ोस के लोगों ने फब्तियां कसने लगे . कहने लगे-घर की इज्जत को चौखट से बाहर निकाला है, नाक कटेगी तो पता चलेगा . फिर भी इन चारों के परिजनों ने अनसुनी कर बेटियों को प्रोत्साहित किया . बिना विधिवत प्रशिक्षण के इन लड़कियों ने जिस आत्मविश्वास के साथ खबर जुटाना शुरू किया कि आप भी वाह कहे बिना नहीं रह सकते . कोसी की प्रलयंकारी बाढ़ को कवर करने गयी रिंकू कुमारी, अनीता व खुशबू के जज्बे को देखकर एनडीटीवी के पत्रकार अजय कुमार ने भी सराहा . मेगाकैम्प में आये मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के कार्यक्रम को कवर करने के क्रम में रिंकू के पैर का नाखून उखड गया, खून निकलता रहा, लेकिन रिकॉर्डिंग रुकी नहीं . हाल में तुर्की में पधारे पूर्व राष्ट्रपति व मिसाईल मैन डॉ ए पी जे अबदुल कलाम के कार्यक्रम को भी अप्पन समाचार की फायरब्रांड गर्ल्स नीरू चौधरी, रिंकू, सुब्बी ने बड़ी बारीकी से कवर किया . लोकसभा चुनाव के दौरान इस ग्रामीण चैनल ने "वोट की चोट" कार्यक्रम के जरिय वोटर जागरूकता का भी कार्यक्रम चलाया . पूर्व केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डॉ रघुवंश प्रसाद सिंह भी गाँव की इन महिला पत्रकारों से रूबरू होकर खुश थे . ज्ञात हो कि अप्पन समाचार का प्रसारण डॉ. सिंह के लोकसभा क्षेत्र के चार प्रखंडों में ही होता है . चुनाव के दौरान कुछ राजनीतिबाजों ने अप्पन समाचार को खरीदने की भी कोशिश किया . सात-आठ लाख तक के आफर मिले, लेकिन मैंने साफ ठुकराते हुए कहा कि यह चैनल वैकल्पिक मीडिया है, बिकाऊ मीडिया का विकल्प .सोलह अक्टूबर २००८ की सुहानी शाम मेरे जीवन की सबसे सुखद शाम थी . सीएनएन-आईबीएन की ओर से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उस शाम एक भव्य समारोह में अप्पन समाचार के जैसे अनोखे प्रयोग के लिए मुझे "सिटिज़न जर्नलिस्ट अवार्ड" से सम्मानित किया . प्रख्यात टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई, आशुतोष, आजतक की नलिनी सिंह, कुलदीप नैयर, गायक हरिहरन, फिल्म अभिनेता राहुल बोस, पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी के बीच खुद को पाकर गौरवान्वित था . हवाई यात्रा की मुरादें पूरी हुईं. मुंबई से आकर स्वतंत्र डॉक्युमेंट्री फिल्म मेकर अब्राहम शिरले और अमित मधेशिया अप्पन समाचार पर शोध किया . अचानक राष्ट्रिय-अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियों में छा गया "अप्पन समाचार" सिविल सर्विसेस क्रानिकल जैसी पत्रिका ने अप्पन समाचार को जी के के सवाल के रूप में शामिल किया . यह सब पूरी टीम को उर्जा देता रहा, लेकिन यह लड़ख्राती शुरुआत आज भी संसाधनों के अभाव में लड़खराते हुए ही आगे बढ़ रही है . प्रशंसा तो मिली पर आर्थिक सहयोग कहीं से नहीं मिली . बिहार सरकार ने भी इस प्रयोग की सुधि नहीं ली . सहयोग के नाम पर एकमात्र पत्रकार मित्र भारतीय बसंत कुमार ने एक साल के लिए प्रोजेक्टर देकर मदद की . मुजफ्फरपुर स्थित सूर्या फिल्मस के राजेश कुमार का सहयोग भुलाया नहीं जा सकता है . इन्होने तकनीकी सहयोग निरंतर दिया है . कोसी चुनौती के संयोजक लोकेन्द्र भारतीय का योगदान भी ताकत देता रहा है . अमृतांज इन्दीवर, फूलदेव पटेल, पंकज सिंह, पत्रकार विवेकचंद्र, प्रोफेसर निराला वीरेंदर, अनिल रत्ना. डॉ हेम्नारायण विश्वकर्मा, नसीमा का भी सहयोग समय-समय पर मिलाता रहा है . संसाधन के नाम पर आज भी हमारे पास दो माईक. एक त्रिपोद और एक-दो फर्नीचर ही अपने पास है. कैमरे व प्रोजेक्टर या तो भाड़े पर लेते हैं या मित्रो का सहयोग . संघर्ष तो हैं ही, खतरें भी कम नहीं हैं इस काम में . लेकिन लड़कियां कमर कसी हैं . सरैया के प्रखंड विकास पदाधिकारी और चान्दकेवारी के मुखिया के गुर्गे से धमकियाँ मिल चुकी हैं टीम को . इस चैनल के खबर का असर ही हैं कि ग्रामीण बैंक, धरफरी ने किसानों को बिना घूस लिए केसीसी ऋण का लाभ देना शुरू किया . नीम के पेड़ को लेकर गाँव में व्याप्त भ्रांतियां दूर होने लगी है . जानकारी हो कि अप्पन समाचार ६ दिसम्बर २००७ को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड के रामलीला गाछी (चान्दकेवारी) में शुरू हुआ था . यह आल वूमेन चैनल के रूप में चर्चित हुआ . एक गाँव से शुरू हुआ यह "आल वूमेन न्यूज़ नेटवर्क" आज जिले के पांच प्रखंडों के तक़रीबन दो दर्जन से अधिक गाँव को कवर करता है . अप्पन समाचार बुलेटिन ४५ मिनट का होता है और प्रोजेक्टर या डीवीडी दे जरिये गाँव के हाट-बाजारों में दिखाया जाता है . रामलीला गाछी, धरफरी, देवरिया, सरैया, पकडी पकोही, मिठनपुरा, भगवानपुर सहित दर्जनों जगहों के लोग अपनी समस्यायों को टीवी स्क्रीन पर देखते हैं. अप्पन समाचार के लिए लगभग पंद्रह लड़कियां एंकरिंग, रिपोर्टिंग, कैमरा चलाने का काम, एडिटिंग आदि का काम देखती हैं. चैनल की दो लड़कियां रांची जाकर डाक्युमेंटरी फिल्म मेकिंग का छः दिन का ट्रेनिंग ले चुकी हैं. मीडिया वर्कशॉप दे द्वारा भी इन महिला पत्रकारों को पत्रकारिता का प्रशिक्षण दिया जाता रहा है . यह लड़खारती शुरुआत एक दिन सफल यात्रा होगी और ग्रामीण मीडिया का एक माडल भी, इसी उम्मीद दे साठ यह संघर्ष जारी रहेगा . चाहे मुश्किलें लाख आये- संतोष सारंग

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