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28.3.11

फूट डालो और शासन करो और आरक्षण की राजनीति-ब्रज की दुनिया


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मित्रों,अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर जब पहली बार कलकत्ता बंदरगाह पर उतरे तो उन्हें यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि मुट्ठीभर अंग्रेज कैसे विशाल जनसंख्या वाले भारत पर शासन कर रहे हैं.लुई फिशर भले ही तब इस प्रश्न का उत्तर नहीं जानते हों;आज प्रत्येक भारतीय को पता है कि इसके लिए अंग्रेंजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति अपनाई थी.
मित्रों,अंग्रेज तो विदेशी थे और उनका एकमात्र लक्ष्य भारत से धन लूटकर इंग्लैण्ड ले जाना था लेकिन भारत में फूट डालो और शासन करो की नीति आज भी जारी है.हमारे सारे राजनैतिक दल और राजनेता इसी नीति के बल पर चुनाव जीतते हैं और देश को लूटते हैं,देश का बंटाधार करते हैं.आरक्षण की राजनीति आज जनता में फूट डालने और अपना नाकारापन छिपाने का सर्वोत्तम साधन बन गया है.याद करिए कि किस तरह आरक्षण का समर्थन कर लालू बिहार के राजा बन बैठे थे और सिवाय पिछड़ों को आरक्षण देने का समर्थन करने के उन्होंने बिहार को कुछ भी नहीं दिया था.इन श्रीमान का सीधे तौर पर मानना था कि जनता काम के आधार पर वोट नहीं देती बल्कि जाति के आधार पर देती है.
मित्रों,भारत में सदियों से आरक्षण लागू है.पहले जहाँ समाज के सारे महत्वपूर्ण काम बड़ी जातियों के लिए आरक्षित थे,अब छोटी जातियां इसका लाभ उठा रही हैं.अगर वह गलत था तो यह भी सही नहीं है क्योंकि दोनों ही स्थितियों में प्रतिभावान लोग उपेक्षित रह जाते हैं या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो समाज को उनकी प्रतिभा का समुचित लाभ नहीं मिल पाता है.आरक्षण के चलते कई बार तो अजीबोगरीब व हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जाती है,जैसे किसी उम्मीदवार को शून्य से भी कम अंक मिलने पर सफल घोषित कर दिया जाता है और सामान्य कोटि का मेधावी उम्मीदवार अच्छे अंक लाने के बावजूद असफल करार दिया जाता है.
मित्रों,यह स्थिति किसी भी तरह देशहित में नहीं है.अयोग्य लोगों को डॉक्टर,इन्जीनियर या आईएएस-आईपीएस बना देने से सेवा,निर्माण और शासन की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ना तय है और ऐसा हो भी रहा है.हमारे कुछ अवर्ण जातीय नेता सवर्णों के प्रति बदले की भावना से ग्रस्त हैं और उन्होंने अपने लम्बे राजनितिक कैरियर में बस दो ही काम किए हैं;एक-सवर्ण जातियों को मंच पर से गलियां देना और दूसरा गलत तरीके से,घपले-घोटाले करके पैसे बनाना.
मित्रों, इन दिनों केंद्र सरकार पर हिंसक-अहिंसक तरीके से दबाव बनाकर आरक्षण लेने के प्रयास जोर-शोर से चल रहे हैं.कभी जाट तो कभी गुर्जर दल-बल सहित आकर सड़कों और रेलवे ट्रैकों पर जम जाते हैं.यह जमावड़ा कभी-कभी तो २०-२० दिनों तक चलता है.कहना न होगा उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा १९९०-९१ के सरकार-प्रायोजित आरक्षण-समर्थक आन्दोलन से मिलती है.इन जातियों को लगता है कि जब अन्य जातियां हिंसक-अहिंसक आन्दोलन के बल पर आरक्षण पाने में सफल हो सकती हैं तो वे लोग क्यों नहीं हो सकते?
मित्रों,अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने के पीछे यह सोंच काम कर रही थी कि चूंकि ये लोग सामाजिक पिछड़ेपन के कारण अन्य जातियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते इसलिए इन्हें कुछ समय के लिए आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए.जाट और गुर्जर तो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं नहीं;कुछ इलाकों में तो ये आर्थिक रूप से भी काफी सशक्त हैं और प्रभु जातियों में गिने जाते हैं.फिर इन्हें कैसे आरक्षण दिया जाए?इस केंद्र सरकार की फूट डालो और शासन करो की नीति अब जातीय आरक्षण का कार्ड खेलने से एक कदम आगे जा चुकी है.केंद्र वोट बैंक की राजनीति के लिए सांप्रदायिक आरक्षण देने का प्रयास कर रहा है और वजह बता रहा है इन सम्प्रदायों के आर्थिक पिछड़ेपन को.इसी तरह बिहार में नीतीश सरकार इसी आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने का मन बना चुकी है.मैं पूछता हूँ कि आरक्षण देने की कसौटी क्या होनी चाहिए? जातीय,सांप्रदायिक या फिर व्यक्तिगत गरीबी या सामाजिक पिछड़ापन,आर्थिक पिछड़ापन या फिर आन्दोलन खड़ा कर देश को क्षति पहुँचाने की क्षमता.मेरे हिसाब से इनमें से कोई भी नहीं;क्योंकि अब नौकरियां गिनती की हैं और उम्मीदवार करोड़ों.ऐसा देखा जाता है कि वह एक व्यक्ति जो नौकरी पाने में सफल होता है अपनी पूरी जाति की भलाई के लिए हरगिज काम नहीं करता बल्कि भाई-भतीजावाद में लग जाता है.इतना ही नहीं बाद में भी ज्यादातर मामलों में इन्हीं सफल लोगों के बाल-बच्चे आरक्षण का लाभ उठाते रहते हैं.मैंने आज तक आरक्षित कोटि का ऐसा कोई भी उम्मीदवार नहीं देखा जिसने क्रीमी लेयर में आने के बावजूद आरक्षण का लाभ नहीं लिया हो.अगर हम पिछले ७०-८० साल के भारत के इतिहास को देखें और देश की सामाजिक स्थिति का तृणमूल स्तर पर अवलोकन करें तो पाएँगे कि आरक्षण सामाजिक बदलाव लाने में असफल रहा है और इसका लाभ चंद संपन्न लोग ही उठाते जा रहे हैं.
मित्रों,अब प्रश्न उठता है कि आरक्षण का विकल्प क्या है?विकल्प है कि सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को पढाई की सुविधा दी जाए और इस स्तर की सुविधा दी जाए जिससे गाँव के सरकारी स्कूलों में पढनेवाला बच्चा भी दून या दिल्ली पब्लिक स्कूल के बच्चों से प्रत्येक विषय में मुकाबला कर सके.जाहिर है कि ऐसा इंतजाम करना आरक्षण देने की तरह आसान नहीं है.अगर केंद्र या राज्य सरकारें ऐसा नहीं कर सकतीं तो फिर वह अलग से सड़कें व रेल ट्रैक बनाए जिस पर आरक्षण की मांग करने वाली जातियाँ भविष्य में धरने पर बैठ सकें.इससे यात्रियों को सड़क जाम व ट्रेनें रद्द होने की स्थिति में परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा.

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