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25.3.11

एक खेल सोच का


 एक खेल सोच का
दिनांकः- 25/3/2011
ममुष्य की महत्वाकांक्षाओ ने दूसरो के हक और अधिकारो को हमेशा कुचला है। इस पर वह व्यक्ती चाहे अपने चाहत को पा सका हो या नही परन्तु न जाने कितने ही लोग इस प्रक्रिया से परोक्ष अपरोक्ष रुप से प्रभावित हुए होंगे लेकिन सफल या असफल हुए व्यक्तियों ने पलट कर एक बार भी नही देखा होगा कि क्यों कब और कैसे वास्तव मे क्या हमने या हम मे से कितने लोगो ने इस विषय पर सोचा होगा। कदापि नही प्रत्येक मनुष्य अपने समाज और लोगो से अनेको आपेक्षाएं रखता है लेकिन उस व्यक्ति ने क्या कभी सोचा है कि समाज और समाज के लोग भी उनसे कुछ आपेक्षाए रखते हैं। ऐसे मानविक अवस्थाओ पर यदि गौर करें तो ऐसे व्यक्ति एक स्वार्थी किस्म का व्यक्ति कहलाएगा। क्यों कि ऐसा व्यक्ति प्रत्येक मामले मे केवल अपने तक ही सीमित रह कर काम करता है। वृहत सोच रखने वाले इंसान समाज मे बहुत कम हैं। कुछ लोग ऐसे हैं भी तो वे यहां तक पहुंच नही पाते और पहुंच भी जाते हैं तो इतने सामजिक शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करने के बाद, उनके ह्रदय दूसरो के प्रति भावनाएं शुन्य हो जाता है, इस अवस्था मे यह जरुरी नही है कि वह व्यक्ति समाज में उच्चतर स्तर पर पहुंचने मे सफल हो जाएं। साधारणतः प्रत्येक इंसान मे कुछ न कुछ कमी अवश्य होती है, चाहे उसका स्तर एवं अवस्थाएं कुछ भी हो सकती है। लेकिन साधारणतः उसी व्यक्ति को सफल होता देखा गया है जो त्वरित एवं सही निर्णय लेने मे सक्षम हो। यदि आप ने निर्णय लेने मे तनिक भर भी देर किया तो उसका प्रभाव कम तो होगा ही साथ साथ उसका प्रतिफल भी विपरीत होगा। त्वरित एवं सही निर्णय लेने के लिए एक साकारत्मक और बंधन मुक्त सोंच रखने वाले मस्तिष्क की आवश्यक्ता होती है। मस्तिष्क की यह सोच मनुष्य को सामाजिक स्तर के उच्चाई तक पहुंचाने मे सहायक होती है। लेकिन सामाज मे एक स्तर पर पहुंच कर यदि आप त्वरित एवं एक सही निर्णय लेने मे असमर्थ होते है तो आपके निर्णय लेने कि क्षमता का ह्रस हो चुका है, या उस पद और स्थिती पर आप निर्णय लेने मे पूर्ण रुप से अक्षम होने के साथ ही साथ उस के योग्य भी नही है। ऐसी स्थिती में आप स्वंम का आंकलन किजिए क्यों की आपके द्वारा लिया गया निर्णय का प्रति फल आप ही नही वरन् आप से जुड़े सभी लोगों पर पड़ेगा और उन्हें भी उसका फल भोगने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।

1-      शिष्य के कुकर्म का फल उसका गुरु भोगता है।
2-      माता- पिता के कुकर्म या गलत निर्णय का फल उनकी संताने भोगती है।
3-      राजा के कुकर्मो का फल उसकी प्रजा भोगती है।
4-      समय से पहले किया गया कर्म एक कली को तोड़ने जैसा है।
5-      दस मुर्ख मित्रों से अच्छा एक बुद्धिमान शत्रु होता है।

1 comment:

अजित गुप्ता का कोना said...

आप बिल्‍कुल सही कह रहे हैं कि निर्णय करने में देरी हमेशा प्रतिफल को कम कर देती है। इसलिए निर्णय तुरन्‍त करने चाहिएं।