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18.1.12

पूंजीवादी व्यवस्था को मुख्य खतरा वामपंथ से है : कामरेड अशोक



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प्रश्न: 2009 के लोकसभा चुनावों में हार और फिर बंगाल की पराजय के बाद क्या मान लिया जाए कि भारत में वामपंथ अब अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता खो चुका है?

उत्तर: यह बात गलत है। ऐसे तर्क वे लोग और ऐसी ताकतें गढ़ रही हैं जो माक्र्सवाद-वामपंथ के वैचारिक शत्रु हैं। इनका साथ दे रही हैं पूँजीवादी ताकतें। पूँजीवादी व्यवस्था के पोषकों, जाति-धर्म-नस्ल के आधार पर सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना बुनने वालों को मालूम है कि उनके मंसूबों को सबसे बड़ा खतरा वामपंथ से ही है। इसीलिए कुछ तात्कालिक राजनैतिक विफलताओं को वह भारत में वामपंथ की मृत्यु के रूप में प्रचारित करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। सोवियत संघ के पतन के वक्त भी कुछ ऐसी ही बातें कही गई थीं। ज्यादा दूर न जाएँ, पिछली केंद्र सरकार ने ही यह साबित कर दिया था कि राजनैतिक व्यवस्था में जनपक्षधरिता बनी रहे, इसलिए वामपंथ जरूरी है। लोकसभा चुनावों में संसद में वामपंथी प्रतिनिधित्व के घटने और बंगाल में 35 साल पुरानी कम्युनिस्ट सरकार की हार का कारण यह नहीं है कि जनता ने वामपंथ को नकार दिया है। यह लोकतंत्र है, जहाँ जीत और हार के कई कारण होते हैं। पश्चिम बंगाल की जनता बदलाव चाहती थी, और यह स्वाभाविक भी है। इसी चाहत की झलक पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में दिखी और फिर 2011 के विधानसभा चुनाव में।

प्रश्न: बात सिर्फ पिछले लोकसभा चुनाव या बंगाल की हार का नहीं है। वामपंथ से जुड़े लोग भी यह महसूस करते हैं कि बीते दो दशक में कम्युनिस्ट पार्टियों का जनाधार सिकुड़ा है। कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर क्यों हुआ है?

उत्तर: यह दुखद सच्चाई है, पर इसके कई कारण हैं। राजनीति में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ जो वामपंथी दलों के चाल चरित्र और चेहरे के प्रतिकूल थीं। राजनीति का अपराधीकरण तेजी से हुआ। राजनीति में जातिवादी और सांप्रदायिक ताकतों का बोलबाला हो गया। राजनीति में पूँजी, जाति, धर्म और भ्रष्टाचार का कीड़ा लग गया। एक ऐसा कीड़ा जिसे हम फोर सी कहते हैं- Caste, Communalism, Cash, Corruption सैद्धांतिक रूप से प्रतिबद्ध और स्वच्छ-जनपक्षधरिता की राजनीति के प्रति समर्पित कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए ये बड़ी चुनौतियाँ थीं। 90 के दशक में ही देश में नव उदारवादी आर्थिक और राजनैतिक नीतियों का बोलबाला बढ़ा। अमरीका और विश्व बैंक द्वारा पोषित अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवादी ताकतों के लिए देश के दरवाजे खोल दिए गए। यह सिर्फ वामपंथ के लिए ही नहीं, हर प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन के लिए गहरा धक्का था। जनता के समक्ष वैचारिक बहस में शुरुआती माहौल ऐसा बनाया गया कि मानो नई आर्थिक व्यवस्था से देश के अंदर गरीबी खत्म हो जाएगी। हर हाथ को काम मिलेगा और देश एक वैश्विक ताकत के रूप में उभरेगा। निश्चित तौर पर शुरुआती दौर में वामपंथी आंदोलन जनता को नव उदारवाद-पूँजीवाद की घिनौनी साजिशों से पूरी तरह से वाकिफ नहीं करा पाया। लेकिन अब असलियत जनता के सामने आ रही है। बड़ी तेजी के साथ परिस्थितियाँ ऐसी बन रही हैं कि जनता का मौजूदा आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था से मोहभंग हो रहा है। वामपंथी-समाजवादी आंदोलन मजबूत हो रहे हैं, उनका आकर्षण बढ़ रहा है। इसी से घबड़ाकर शासक-पूँजीवादी वर्ग वामपंथ और प्रगतिशील आंदोलन के खात्मे की मनगढंत कहानियाँ गढ़ रहा है।

प्रश्न: ऐसे में क्या वामपंथी दलों के एकीकरण का वक्त नहीं आ गया है? मेरा आशय भाकपा और माकपा के विलय से है।

उत्तर: 1964 में पार्टी विभाजन निश्चय ही दुखद था। इसकी वजह से भी कम्युनिस्ट आंदोलन में कुछ शिथिलता आई। जिन बुनियादी वैचारिक मतभेदों के चलते माकपा का गठन हुआ था, उन्हें अब माकपा भी पीछे छोड़ चुकी है। निश्चित तौर पर ऐसे में अब देश की मुख्य कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्यक्रमों तथा वैचारिक दृष्टिकोण में कोई बड़ा बुनियादी फर्क नहीं है। भाकपा, माकपा और वाममोर्चे के अन्य दल बीते कई सालों से मिलकर संघर्ष कर रहे हैं। वाम मोर्चे की आपसी समझ और एकजुटता मजबूत है और वह साझा ढंग से जन आंदोलनों का नेतृत्व कर रही है। ऐसे में वाम दलों के एकीकरण का सवाल उठना लाजमी है। पर एकीकरण एक जटिल प्रक्रिया है और उसका रास्ता वांमपंथी दलों के साझा कार्यक्रमों, उनसे जुड़े जनसंगठनों की एक जुटता के जरिए ही निकलेगा, और यह प्रक्रिया तेजी के साथ चल रही है।

प्रश्न: वामपंथ की जिस धारा का सबसे ज्यादा जिक्र आज हो रहा है वह है उग्र वामपंथ या जिसे माओवाद कहा जाता है। केंद्र सरकार माओवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती है। मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी माओवाद की कटु आलोचक हैं। माओवाद को आप कितनी बड़ी समस्या मानते हैं या फिर उसे वैचारिक रूप से कितना मजबूत समझते हैं?

उत्तर: हम माओवाद या उग्र राजनैतिक पहल के समर्थक नहीं हैं, लेकिन माओवाद-नक्सलवाद को सिर्फ कानून एवं व्यवस्था के चश्में से देखने के नजरिए का हम समर्थन नहीं करते। यह मूलतः एक राजनैतिक समस्या है जिसकी बुनियाद में है गरीबी, अभाव और बेरोजगारी। सरकार इसे सिर्फ आतंकवाद का लेबल देकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। बीते 64 सालों में देश की जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग अपने आप को वंचित, लुटा हुआ महसूस करता है। ऐसे में कुछ शोषित लोगों को लगता है कि शायद बंदूक का रास्ता ही ठीक है। पर भाकपा का यह स्पष्ट मानना है कि हथियारबंद आंदोलन सत्ता और व्यवस्था को पूरी तरह बदल नहीं सकते। न्याय की उनकी लड़ाई का तरीका सही नहीं है और शायद माओवादियों के कुछ गुटों को देशी विदेशी ताकतों की भी मदद मिल रही है। भाकपा का हमेशा से यह मत है कि उन्हें हथियार छोड़कर राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होना चाहिए, ताकि जनता के पक्ष में आंदोलन को और मजबूती से खड़ा किया जा सके। जंगल में छिपकर, भूमिगत रहकर बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता।


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