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31.1.12

सरस्वती के उद्दंड बेटे-ब्रज की दुनिया

मित्रों,वक़्त को आते हुए तो सभी देखते हैं पर कब वह चुपके से,दबे पांव सरक लेता है कोई नहीं जान पाता.देखते-देखते नववर्ष और मकर-संक्रांति की तरह ही वसंत पंचमी भी गुजर गयी और साथ ही सरस्वती पूजा भी.फिर शुरू हुआ विद्या और विवेक की अधिष्ठात्री भगवती सरस्वती की प्रतिमाओं को विसर्जित करने का सिलसिला.सरस्वती-पुत्र जुलूस की शक्ल में सड़कों से गुजरने लगे.ठेले पर देवी की प्रतिमा सबसे पीछे,उसके आगे भारी-भरकम साउंड बॉक्सों से लैस ट्रॉली और सबसे आगे शराब के नशे में धुत्त,अश्लील-फूहड़ गानों की बेहूदा धुनों पर लड़खड़ाते हुए नृत्य-जैसा कुछ करते सरस्वती के बेटे अथवा भक्त.कई बार तो जी में आया कि लाठी उठाऊँ और एक सिरे से सबकी पिटाई कर दूं परन्तु परिणाम की सोंचकर हर बार गुस्से को जज्ब कर गया.
                        मित्रों,लगभग पूरे बिहार से इस समय प्रतिमा-विसर्जन के दौरान नदियों-तालाबों में युवकों के डूबकर मारे जाने की ख़बरें आ रही हैं.क्या जरुरत है खतरा मोल लेकर ज्यादा गहरे पानी में प्रतिमा  को विसर्जित करने की?यहाँ तक कि खचाखच भरी नावों में भी इन नशेड़ियों की उच्छृंखलता नहीं रूकती जिसका परिणाम होती है जानलेवा दुर्घटनाएं.जुलूस के रास्ते में भी इनका रवैया निहायत अफसोसनाक होता है.कभी-कभी ये लोग रास्ते में वैध-अवैध आग्नेयास्त्रों से गोलीबारी भी करते चलते हैं.कल कुछ इसी तरह की एक दुखद घटना में सहरसा में रेशमा नाम की एक लड़की मारी गयी.इसी तरह की एक और हिंसात्मक घटना में मुजफ्फरपुर में विवेक नाम के एक सरस्वती-भक्त की दूसरे भक्तों ने चाकुओं से गोदकर हत्या कर दी.
                         मित्रों,आप सोंच रहे होंगे कि इस तरह की घटनाएँ क्यों हो रहीं है?निश्चित रूप से इसके लिए हमारी दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली और समाज का नैतिक-स्खलन तो जिम्मेदार हैं ही हमारे द्वारा दिया गया चंदा भी कम दोषी नहीं है.हम चंदा तो दे देते हैं लेकिन यह नहीं देखते कि हमारे बच्चे उन पैसों का कर क्या रहे हैं जबकि यह हमारा ही कर्त्तव्य है.हम उन्हें चंदा देते हैं पूजा-पाठ में खर्च करने के लिए और वे जनाब उसका शराब पी जाते हैं.इतना ही नहीं कभी-कभी तो हमारे द्वारा प्रदत्त राशि से नृत्यांगनाएं भी बुलाई जाती हैं और उनसे कामुक और भौंडे नृत्य कराए जाते हैं.भगवान वैद्यनाथ की नगरी देवघर की  एक ऐसी ही घटना इनदिनों खूब चर्चा में है.आश्चर्य है कि ये लोग जाहिर तौर पर पूजा तो कर रहे हैं बुद्धि और विवेक की देवी सरस्वती की और कर रहे हैं बुद्धि और विवेक के सबसे बड़े शत्रु मदिरा का सेवन और अर्द्धनग्न स्त्रियों का साक्षात् दर्शन.मुझे नहीं लगता कि जिन स्थानों पर टिंकू जिया,शीला की जवानी और उ लाला उ लाला जैसे अतिअश्लिल गीत बजे जाते हैं वहां माता सरस्वती का क्षण भर भी टिक पाना संभव होता होगा.
                                       क्या सरलता,सादगी और पवित्रता की देवी की अर्चना सरल सामग्री-साधनों द्वारा,बिना किसी तड़क-भड़क के और सरल-सच्चे मन से नहीं की जानी चाहिए?अन्यथा पूजा का कोई मतलब भी नहीं रह जाता क्योंकि कोई भी पूजा अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए की जाती है न कि दिखावे,प्रदर्शन और अपने उच्छृंखल मन को संतुष्ट करने के लिए.सरस्वती पूजा कोइ आप युवा सरस्वती-पुत्रों की ईजाद नहीं है.पूजा हमने भी की थी.तब यानि आज से कोई २५ साल पहले हम अपने नाजुक कन्धों पर उठाकर देवी को १० किलोमीटर दूर बांदे करनौती से जगन्नाथपुर लाया करते थे.कोई लाउडस्पीकर या साउंड बॉक्स नहीं होता था पूजा-स्थल पर.विसर्जन के समय भी हम प्रतिमा को अपने कन्धों पर ही उठाते थे और गाँव के प्रत्येक अमीर-गरीब के घर के सामने रखते थे ताकि महिलाएँ देवी को विधिवत-पुत्रीवत खोईछा भरकर विदाई दे सकें.तब सूरज पासवान की कमर में ढोलक बंधा होता था और जयलाल रविदास अति मधुर और भक्ति-भीना स्वर में 'हंसा पर सवार हे माता,हंसा पर सवार हे' गाते चलते थे.साथ में हम जैसे अन्य युवा-किशोर झाल-करताल बजा-बजाकर संगत करते चलते थे.कहीं कोई उच्छृंखलता या अश्लीलता नहीं;चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ भक्ति का पवित्र वातावरण.क्या वह युग फिर से वापस नहीं आ सकता?अगर नहीं तो क्यों नहीं?बंद करिए लाउडस्पीकर,डीजे और म्युजिक ट्रॉली का प्रयोग.उठाईये ढोलक और झाल-करताल.शराब पीना और अश्लील सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तो निर्विकल्प रूप से बंद होना ही चाहिए.अंत में,मेरी सरस्वती के सभी उद्दंड पुत्रों से हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन है कि जो हुआ सो हुआ आगे से अगर वे सचमुच माता सरस्वती को प्रसन्न करना चाहते हैं तो इन बातों का अवश्य ख्याल रखेंगे.लेकिन क्या मेरे युवा-किशोर अनुज मेरी यानि सरस्वती के इस तुच्छ साधक की सुनेंगे?

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