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25.1.13

किताबघर और किताबें



किताबघरों की पारदर्शी खिड़कियों से
टुकुर टुकुर झांकती हैं किताबें
इस आस में कि कोई तो आये
जो उन्हें अपने साथ ले जाये
अपने हाथों में थामे
उन्हें पढ़े मनोयोग से
बसा ले अपने  दिल  में .

किताबें खुली हवा में
साँस लेना चाहती हैं
अपने भीतर की खुशबू को
फैलाना चाहती हैं पूरी कायनात में .
अँधेरे गोदामों  में
उनका दम घुटता है .

बाज़ार की दुकानों पर सजी किताबें 
बड़ी गुमसुम रहती हैं.
उन्हें पता है
यह बाज़ार ही है उनका
सबसे बड़ा दुश्मन  
आज नहीं तो कल
यह उन्हें समूचा निगल जायेगा .

किताबें निहत्थी हैं
जिन्दा रहने की जद्दोजेहद में
नितांत एकाकी
इनको अपनी लड़ाई भी
ठीक से लड़नी नहीं आती
इनको कौन बचायेगा ?
समय ,सीलन और दीमक
किसी को नहीं बख्शते .

किताबें मानस संतति हैं
उन उर्जावान रचनाकारों की
जो कभी निकले तो थे
शब्दों की मशाल लिए
इतिहास की कालिमा मिटाने
पर  चले गए वापस
अपनी –अपनी महत्वाकांक्षाओं के
ऐसे वनों मे धूनी रमाने
जहाँ की निस्तब्धता को बेध पाना 
बेचारी किताबों के लिए मुमकिन नहीं .

किताबें धीरे धीरे किताबघरों में
मर रही हैं एक एक करके .
इनकी असामयिक मौत पर
शोकाकुल होने की
फिलवक्त किसी को फुरसत नहीं .

ध्यान रहे यह सिर्फ
किताबों का मामला नहीं है
कोई  है जो पहले खत्म करेगा
धरती से किताबों के नामोनिशान
इसके बाद होंगे उसके निशाने पर
हम सभी
वह किसी को नहीं छोड़ेगा .





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