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22.6.13

प्राकृतिक आपदा में चन्दा की संस्कृति से आगे का रास्ता

प्राकृतिक आपदा के तुरत बाद देश के दुसरे हिस्से की सरकारों का कुछ कर्त्तव्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। प्राकृतिक आपदाग्रस्त  राज्य की सरकार और जनता के प्रति दुसरे राज्यों की सहानुभूति के सच को दो घटनाओं से समझा जा सकता है - एक राज्य के मुख्यमंत्री ने दुसरे राज्य के दौरे के दिन उस राज्य की जनता को समाचार-पत्रों में पुरे पन्ने के विज्ञापन द्वारा यह एहसास करवाया कि एक राज्य ने दुसरे राज्य को इतनी राशि की मदद की है। वहीं इस दुसरे राज्य की सरकार ने अपने ही राज्य के (दो दिन पहले बर्खास्त किए गए ) स्वास्थ्य मंत्री की प्राण रक्षा की गुहार को बिलकुल अनसुना कर दिया, जबकि यह जगजाहिर है कि उत्तराखंड में बड़ी संख्या में बिहारी भाई-बहन भी फंसे हुए हैं। जो सरकारें अपने राज्य की बड़ी राजनीतिक हस्तियों को बचाने के लिए कोई औपचारिकता नही करती वे सरकारे एक दो करोड़ का चेक देकर अपने किसी अफसर को मातमपुर्सी के लिए भेज देतीं हैं। वही दुसरे राज्य पर एहसान जतानेवाले मुख्यमंत्री एक  फिर हेलीकप्टर पर चढ़ कर एहसान जताने निकल पड़ते हैं।
किसी भी आपदा के आने में जनता की भूमिका नगण्य है. संविधान ने देश की संस्कृति का की रक्षा का भार जिनके ऊपर दे रखा है वे ही समलैंगिकता को मुख्यधारा बनाने पर तुले हुए है तो पोलिथिन संस्कृति और केदारनाथ  मौज मस्ती करने जाने की संस्कृति का दोष जनता पर डाल कर देश का ही नुकसान कर रहे हैं। इसलिए इस परिस्थिति में मेरे विचार में देश की आपदा प्रबंधन नीति कुछ इस प्रकार की होनी चाहिए:-

1.      प्राकृतिक आपदा की प्रथम सूचना मिलते ही युद्ध स्तर पर दुसरे राज्य सरकारों को सामग्री जुटाने का काम शुरू कर देना चाहिए। साथ ही जो भी दूसरी संस्थाएं मदद करने की इच्छुक हो उन्हें भी यही करना चाहिए। मौसम के साफ़ होने तक के 12, 24 या 48 घंटो तक यह काम चलता रहे तो देश के 24 राज्य सरकारों और इतने ही स्वयंसेवी संगठनो द्वारा मौसम साफ़ होते ही क्षेत्र में राहत सामग्री लेकर प्रवेश करना आसान होगा। सनद रहे कि  एक राज्य सरकार एक रात की नोटिस पर १-२ टन सामग्री तो भेज ही सकती है और ऐसा वे सभी दूसरी संस्थाए भी कर सकती हैं जो 1000  से 10000 करोड़ का आयकर प्रपत्र दाखिल करती हैं।

2.      मौसम साफ़ होने के बाद ये सभी संगठन अपने दल-बल के साथ क्षेत्र में अलग अलग दिशाओं से घुस जाएं। जान बचाने को वरीयता तथा स्थानीय लोगो को आसरा देते हुए स्थानीय लोगो तथा उस क्षेत्र में रह रही पुलिस सेना आदि की मदद लेते हुए ये आगे बढती जाएँ, तो जान बचने की तथा चिकित्सा सुविधा मिलाने की संभावनाए बढ़ जायेगी।


3.      ज़रा सोचिए जिस राज्य में आपदा आयी है वह सिर्फ नागरिको के ऊपर ही नही आयी है बल्की वहा के कर्मचारियो-अधिकारियों पर भी आयी होती है। जो खुद ही तबाह हो गया हो उससे मदद की उम्मीद करना कहा तक सम्यक है। इस परिस्थिति में देश न जाने किस कानून से कल रहा है कि प्राकृतिक आपदा से जुझने की पुरी जिम्मेवारी स्थानीय प्रशासन से शुरू और सैन्य बलों  पर ख़त्म हो जाती है।

4.      इसके बाद तबाही की सूचना जैसे जैसे बड़ी होती जाए वैसे वैसे बिना किसी अपने पराये का भेद किए तमाम राज्य सरकारे अपने कर्मचारियो को इस काम में झोकती जाएं। ऐसा करने से प्रथम और सतत मदद मिलना संभव हो जाएगा।


5.      सेना नौसेना और अर्धसैनिक बलों  को इस बात की आजादी दी जानी चाहिए कि  शांतिकाल में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में मदद हेतु युद्धस्तर पर अधिकतम प्रयास करने, वांछित  संख्या में जवानो और उपस्करों के इस्तेमाल करने हेतु वे स्वतन्त्र हैं। इससे हेलीकोप्टर की कमी जैसे मुद्दों से निबटने में आसानी होगी।

6.      जब देश की राज्य सरकारे स्वयं स्वत:स्फूर्त मदद नही दे सकतीं तो जनता से चन्दा इकट्ठा करने का कोई मतलब नही है। उसी प्रकार यदि  देश के किन्ही 5-10 जिलों में आपदा आयी हो और बाकी लोग हवं करते रहे, मोमबत्तियां जलाते रहें,प्रार्थना करते रहें तो यह खुद के साथ भी छल है और उनलोगों के साथ भी जिन्हें मदद के लिए हाथ चाहिए, वे पैसा खाकर नही जी सकते। यदी पैसा खाकर जीना संभव होता तो 100  रुपये में बिस्कुट और पानी नही खरीदना पड़ता।


7.      देश के 25 राज्य सरकारों के पास अपने मुख्यमंत्रियों  के चढाने के लिए कम से कम 25 हेलीकोप्टर तो होंगे ही लेकिन घोटाले के उद्देश्य से खरीदे हुए , सेना और वायुसेना के हेलिकोप्टर के भरोसे ये खुद ही उड़ते है। फिर भी इनमे से किसी ने नही कहा कि मेरा हेलीकोप्टर ले जाओ, सभी ने करोड़ का चेक थमा दिया। 


8.      देश की सभी राज्य सरकारो और स्वयंसेवी संस्थाओं की  टीमों को एन डी  आर  एफ  से निर्देशन एवं सहयोग लेते हुए राष्ट्रवादी  एकजुटता की भावना से 10 - 20  दिनों तक भारतमाता की सेवा में जुट जाना चाहिए।

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