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6.10.13

सरकारी स्कूल का एक दिन



अखिलेश उपाध्याय/कटनी से 

जिले के विद्यालयों की दुर्दशा चरम पर है. पहले कभी आदर्श रहे शिक्षक अब स्वयम कर्तव्यहीन और भ्रष्ट हो चुके है. आज शासकीय विद्या मंदिरों में शिक्षा के आलावा अन्य गतिविधियों में शिक्षक ज्यादा  रूचि ले रहे है. अध्यापन में कम रूचि वाले शिक्षक अपने व्यवसाय में लगे है. न पढ़ना जैसे उनका अधिकार बन गया है. ऐसे में जिले एवम तहसील स्तर पर बैठे जिम्मेदार अधिकारी क्या मानिटरिंग करते है ? अगर औचक निरीक्षण करते है तो क्या उन्हें शिक्षा व्यस्था में कोई कमी नहीं दिखती और अगर दिखती है तो फिर सम्बंधित कर्मचारी को सो कास नोटिस या कार्रवाई  क्यों नहीं की जाती?

इन्ही सब बातो को ध्यान में रकते हुए पिछले दिनों कांती जिले की परिक्रमा पर निकला तो स्कूलों की दुर्दशा देख स्वयं को न रोक सका और व्यथा फूट पडी जिसके कुछ अंश प्रस्तुत है -

समय की पाबंदी नहीं
 सरकारी विद्यालयों में अध्यापनरत शिक्षक समय पर स्कूल पहुचना स्वयम की अवमानना समझते है. चपरासियों और अतिथियों के सहारे विद्यालय चल रहे है. अतिथि शिक्षक समय पर पहुचकर जैसे तैसे स्कूल लगवा तो देते है लेकिन नियमित शिक्षक अपने मन मुताबिक  समय पर आते-जाते रहते है. यदि कोई जांचकर्ता अधिकारी पहुच  भी गया तो उनके आवेदन की प्रति पहले से लगी देखी जा सकती है.

गाव में कोई नहीं रहना चाहता
एक जमाना था जब शिक्षक गर्मी की छट्टियो तक में गावो में रहा करते थे अब भौतिक्बाद और निरंकुश शासन के चलते तथा अपने जमीर को मरकर जीने वाले अधिकांश शिक्षक पास के शहर में रहते है और वही से विद्यालय आना जाना करते है. अपने बच्चो की पढ़ाई या बेहतर स्वास्थ्य व्यस्थाओ का बहाना बनाकर मुख्यालय में नहीं रहते. 

शिक्षा प्रभावित
ऐसे में जैसे तैसे शिक्षक विद्यालय पहुच भी गए तो फिर सामायिक घटनाओं पर चर्चा करके अपने ज्ञान से स्वयम को एवम दूसरो को बौद्धिक विलास करके आनंदित होते  है. पैतालीस मिनट के पीरियड में दस मिनट के लिए कक्षा में पहुचते है अगर समय पर गए भी तो फिर साथ के शिक्षक से गप्प लगाकर समय बर्बाद करते देखे जाते है

मरने की फुर्सत नहीं
अधिकांश शिक्षक अध्यापन की अपेक्षा अन्य गतिविधियों में समय बर्बाद करते है. बहुतेरे तो साल भर हाथ में फाईलो का बस्ता ढोते पाए जाते है. और उनका यह काम न केवल शिक्षक कक्ष में बल्कि पीरियड में भी जारी रहता है उन्हें देखकर यह कहावत सटीक लगती है की काम कोडी का नहीं और फुर्सत मरने की नहीं. आखिर बच्चो ने क्या बिगाड़ा है. उच्च वेतन पाकर भी भला क्यों नहीं पढ़ाते?

चमचागिरी में मग्न
विद्यालय से लेकर जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय तक कुछ होसियार और कामचोर शिक्षक  अपनी-अपनी सेटिंग में लगे रहते है. जिले के अधिकारियो से मेल-जोल बनाकर विद्यालय में काम न करना तथा स्वयं को विद्यालय का मुखिया समझते है. और हो भी क्यों न क्योकि विद्यालय के मुखिया भी तो सप्ताह में दो-तीन दिन ही दर्शन देते है

नौ  दिन चले अढाई कोस
यह सब देख  कर्मठ और ईमानदार शिक्षको का मनोबल टूट जाता है कुछ शिक्षक जो दिलोजान से अध्यापन करते है उन्हें लगता है की आखिर वे क्यों अकेले पूरा स्कूल सर पर उठा रहे है और फिर परिणाम होता है की वे  शिक्षक भी पढ़ाने से कतराने लगते है या खाना पूर्ती के लिए कक्षा में तो दीखते है लेकिन क्या पढ़ते है यह तो विद्यार्थी भी नहीं बता सकते यह तो वही बात हो गई की नौ  दिन चले अढाई कोस 

कागजो में दौड़ रहे काम
यदि कहे की शिक्षा व्यस्था में गड़बड़ी के लिए उसी गाव के लोग और स्वयं पालक ही जिम्मेदार है तो यह गलत नहीं होगा क्योकि जब पालक  और गाव वाले स्वयं देख रहे है की शिक्षक समय पर नहीं आते और यदि आते भी है तो विद्यालय में गप्प मारते देखे जा सकते है तो फिर वे टोकते क्यों नहीं या उच्च अधिकारियो से शिकायत क्यों नहीं करते? इसीलिए सारी समितिया कागजो में दौड़ रही है और हर समिति की बैठक बताती है की स्कूल बिलकुल दुरुस्त चल रहा है जबकि परिणाम सभी के सामने है

प्रयोगशाला बनी कबाड़
जिले के हाई स्कूल एवम हायर सेकेंडरी स्कूलों की प्रयोग शालाओं की स्थितिया बदतर हो चुकी है अब इनमे सिवाय कबाड़ के कुछ नहीं बचा है. हायर सेकेंडरी में फिजिक्स और केमेस्ट्री की प्रयोग शालाओ में उपकरण नहीं है यदि है तो वर्षो पुराने जंग लगे है. केमिकल सालो पुराना है जो एक्सपायर हो चूका है. परखनली एवम अन्य उपकरण नदारद है ऐसे में भला क्या प्रयोग होते होगे. भविष्य के डाक्टर और ईन्जीनियर फिर भला कैसे तैयार होगे?

कंप्यूटर लेब के दरवाजे कब खुले?
जिले के उच्च एवम उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालयों में कंप्यूटर शिक्षा के नाम पर फीस ली जाती है लेकिन बारहवी क्लास में पढ़ रहे विद्यार्थियों को तो यह तक पता नहीं की कंप्यूटर कक्षा है कहा. कंप्यूटर के लिए शिक्षक भी रखे जाते है लेकिन उनसे दुसरे काम कराये जाते है. कुछ ख़ास शिक्षको की समिति मुखिया द्वारा बनाकर बैठक कागजो में दिखा दी जाती है

पुस्तकालय का लाभ बच्चो को नहीं
विद्यालयों में पुस्तकालय इसलिए बनाये जाते है ताकि बच्चे अच्छी पुसते पढ़ कर ज्ञान प्राप्त कर सके और उनमे पढने के प्रति लगन पैदा गो लेकिन अधिकांश स्कूलों में तो पुस्तकालय कहा है यह विद्यार्थियों को पता ही नहीं है. इन विद्यालयों में पुस्तकालय प्रभारी तो बना दिए गया है लेकिन आज तक किसी बच्चे को पुस्तक पढने के लिए नहीं मिली.

शाला विकास के नाम पर बसूली
शासन के निर्देश है की शाला विकास के नाम पर किसी भी प्रकार की कोई भी शुल्क न बसूली जाये लेकिन जिले के अधिकांश विद्यालय इस नियम का वर्षो से उल्लंघन कर रहे है और धड़ल्ले से शाला विकास के नाम से बच्चो से पैसा ले रहे है. सरकारी विद्यालयों में अधिकांश गरीब तबके के विद्यार्थी पढ़ते है ऐसे में शासन के नियमो की अवहेलना करके शाला विकास के नाम पर पैसा क्यों वसूला जा रहा है? और यदि वसूला भी जा रहा है तो विद्यालय में व्यवस्थाये क्यों चौपट है . कमरों में पंखे क्यों नहीं है. खचाखच भरे कमरों में उबलते बच्चे जैसे-तैसे बैठे रहते है.

टायलेट में ताला
जिले के विद्यालयों में समग्र स्वच्छता अभियान के तहत टायलेट बनाये तो गए लेकिन इनकी दुर्दशा है. यहाँ यदि कोई पेशाब करने पहुच जाए तो या तो वह बेहोश हो जायेगा या जी मिचलाने लगेगा. इन टायलेट में कभी फिनायल और एसिड डालकर सफाई नहीं की जाती. उसपर भी कन्यायो के लिए बनाये गए टायलेट में अधिकांश विद्यालयों में ताला  लटकता देखा गया

पढाई के अलावा आज विद्यालयों में सब कुछ हो रहा है. यदि मुखिया से पूछा जाये तो वे कहते है की हमसे इतनी जानकारी पूछी जाती है की हम तो जबाव देते देते थक जाते है. शिक्षको से पूछा जाये तो वे कहेगे की शाशन की योजनाओं को पूरा करने के लिए उनसे भी कागजी कार्रवाही कराई जाती है. ऐसे में भला शिक्षा नीती बनाने वाले क्या यही सोचकर व्यस्था बनाते है की विद्यार्थी पढ़े न ?

1 comment:

Anonymous said...

Saree baten sahi.
par ilaz kuchh nahin.