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24.7.15

यूपी में इंसाफ के बदले मुंह बंदकराई का चलन



कृष्ण सिंह


उत्तर प्रदेश ने अपने इतिहास में अराजकता और अव्यवस्था के कई दौर देखे हैं, लेकिन ऐसा दौर कभी नहीं देखा जिसमें सरकार ने मुआवजे और नौकरियों को इंसाफ मांगने वालों की मुंह बंदकराई में बदल दिया हो और उनकी आड़ में की गई डीलों से ‘अपने’ अपराधियों को बचाने में सफलता पाने पर विजयदर्प से मुसकुराती हो! कोई तो समझाए उसे कि यह मुसकुराने का नहीं चुल्लू भर पानी तलाशने का मामला है।



इंसाफ का रूप हमेशा एक-सा नहीं रहता। राजतंत्रों के दौर में जो राजा कहे, वही न्याय होता था। मुगल बादशाह जहांगीर के काल में हम उसकी एक विशिष्ट शैली-जहांगीरी इंसाफ-से भी गुजरे। लोकतंत्र यानी व्यक्तियों के बजाय नियमों व कानूनों का शासन आया तो हमने इंसाफ की भी स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व जैसे मूल्यों के समरूप कल्पना की, जिसमें बदले व न्याय में फर्क करने की तमीज को भी शामिल किया। ‘खून के बदले खूनÓ से तौबा को भी। यही कारण है कि अब कोई अपने या दूसरों के साथ हुई अथवा की जा रही नाइंसाफियों के खिलाफ आवाज उठाता है तो स्वाभाविक तौर पर विश्वास कर लेते हैं कि वह उसे इंसाफ की हमारी लोकतांत्रिक कल्पना के अनुरूप तार्किक परिणति तक ले जाएगा। न कि यह कि अपने पक्ष में थोड़ा समर्थन और शक्ति जुटा लेगा तो उसे अपने और नाइंसाफी पर उतरी शक्तियों/सरकारों के बीच का मामला मानकर मूल्यहीन सौदेबाजी पर उतर आएगा और झमेले से निजात को आतुर सरकारें भी इस सौदेबाजी को खुशी-खुशी आगे बढ़ाएंगी।

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में कथित रूप से जलाकर मार दिए गए पत्रकार जगेंद्र की इंसाफ मांग रही पत्नी और बेटों ने जिस तरह अचानक यू-टर्न लेकर मामले की सीबीआई जांच कराने की अपनी मांग छोड़ दी और इसे लेकर चलाया जा रहा धरना समाप्त कर दिया, उससे हमारे उक्त विश्वास को गहरा झटका लगा है। पहले पत्नी-बेटे अपनी मांग के पक्ष में खासी दृढ़ता दिखा रहे थे और चाहते थे कि प्रदेश के जिन पिछड़ा कल्याण मंत्री राममूर्ति वर्मा के उकसावे पर पुलिसकर्मियों ने जगेंद्र को आग लगाई, उसने अपने मृत्युपूर्व बयान में जिनका नाम लिया और जिनके खिलाफ एफआइआर दर्ज कराई जा चुकी है, उन्हें तत्काल गिरफ्तार किया जाए।

जगेंद्र के एक बेटे ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था कि वे मुख्यमंत्री के इस आश्वासन पर एतबार नहीं कर पा रहे कि किसी के साथ अन्याय नहीं होने दिया जाएगा। उसका कहना था कि जो उत्तर प्रदेश पुलिस मामले के अभियुक्त मंत्री को छूने की भी हिम्मत नहीं कर पा रही, वह जांच करेगी तो उलटे जगेंद्र को ही दोषी ठहरा देगी। पुलिस ने जिस तरह उक्त मंत्री पर बलात्कार का आरोप लगा चुकी जगेंद्र की महिला मित्र को, जो आंगनबाड़ी कार्यकर्ता भी है, बयान बदलने की चर्चाओं के बीच हर किसी की पहुंच से दूर किया हुआ था, उससे भी जगेंद्र के परिजनों के अंदेशे व असंतोषों को बल मिल रहा था। लखनऊ समेत विभिन्न जिलों में कई पत्रकार समूहों व उनके संगठनों ने भी उनके समर्थन में धरनों व ज्ञापनों आदि का सिलसिला शुरू कर रखा था।

लेकिन अब इन परिजनों को ‘वी द पीपुल’ नाम के एक गैर सरकारी संगठन द्वारा सीबीआई जांच की उनकी मांग को लेकर उच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका के फैसले तक का इंतजार नहीं है। वे जगेंद्र के हत्यारों को सजा दिलाने का जज्बा भी नहीं बचा पाए हैं। इस बीच बदला सिर्फ इतना है कि बसपा के एक पूर्व विधायक की पहल पर जगेंद्र के दोनों बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलकर तीस लाख रुपए के मुआवजे व दोनों के लिए नौकरियों का आश्वासन प्राप्त कर आए हैं। किसी को नहीं मालूम कि यह उनकी अब तक लोगों की निगाहों से छिपी आ रही मंशा का परिणाम है या उन्होंने इस डर से यह सौदा स्वीकार कर लिया कि प्रदेश सरकार का कुसूरवारों के पक्ष में खड़े होने के मद्देनजर उन्हें इंसाफ तो मिलने से रहा, क्यों न बदले में जो कुछ मिल रहा है, उसे ही स्वीकार करके खुश हो लिया जाए! फिलहाल, इसे उनके द्वारा जगेंद्र के कुसूरवारों को अभयदान के रूप में देखा जा रहा है।

जाहिर है कि अब इस प्रकरण को जनहित से जोड़ने और दोषियों को उनके किए की सजा दिलाने की कोशिश में लगे लोगों की हालत ‘मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्तÓ जैसी हो गई है। वे करें भी क्या, जिनके इंसाफ के पैरोकार थे, उन्होंने खुद ही उसका विकल्प चुन लिया और बदले में रुपए व नौकरियां पाकर खुश हो गए हैं। सवाल जितना नैतिक या राजनीतिक है, उतना ही सांस्कृतिक भी। पिछले दशकों में हमने अर्थाधारित मूल्यहीन समाज के निर्माण की दिशा में जितनी तेजी से कदम बढ़ाए हैं, उससे सांस्कृतिक मूल्यों के खासे तेज हो गए क्षरण के बीच अब हमें ऐसी चीजें ज्यादा विचलित या चकित नहीं करतीं। मान-सा लिया गया है कि रुपए की सत्ता सबसे ऊपर होगी और उसके लिए जीवन के प्राय: सारे क्षेत्रों में सही गलत समझौते किए जाएंगे तो समता, बंधुत्व व न्याय जैसे मूल्यों से भी समझौते होंगे और मूल्यहीनता तक जाएंगे ही। ऐसे ही एक समझौते के तहत अरसा पहले इसी प्रदेश के एक मंत्री ने बलात्कार का मुआवजा मिलने से पहले ही पीड़ित महिला से फिर बलात्कार हो जाने पर लापरवाही से कह दिया था कि वे उसे दो बार मुआवजा दिला देंगे। है न इंसाफ की कमाल की समझदारी!

ऐसी ही समझदारी के तहत अखिलेश सरकार ‘अपनों’ के अपराधों में मुआवजे के प्रावधानों को पीड़ितों से डील की तरह इस्तेमाल कर रही है। मामला राजा भइया के कुंडा में कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की हत्या का हो तो भी और महाराजगंज निवासी पत्रकार धीरज पांडे की सपा के एक पूर्व विधायक के वाहन से कुचलकर मौत का हो तो भी, नौकरियां और मुआवजे इंसाफ की आवाज को दबाने के इस सरकार के हथियार बन गए हैं। तभी तो जगेंद्र के परिवार को तीस लाख और दो नौकरियां मिलीं तो धीरज पांडे के परिवार को महज बीस लाख। यानी मुआवजा वह इस तथ्य से तय करती है कि जिसे दे रही है, उसका मुंह कितना बड़ा है और वह उसे बंद रखने की कितनी छोटी या बड़ी कीमत का पात्र है। पिछले दिनों उसकी ऐसी ही कारस्तानियों के चलते अदालत ने पूछा कि मुआवजे के बाबत कोई नीति भी है या नहीं, तो उसने चुप्पी साध ली थी।

यह तो कह नहीं सकती थी कि रुपए के सारे मूल्यों व नैतिकताओं से बड़े होने के सुभीते का इस्तेमाल कर रही है। क्या करे, अब कई बेटे नौकरीपेशा बाप को सेवानिवृत्त होने से पहले ही ठिकाने लगाकर उसकी जगह नौकरी पा लेना चाहते हैं और सीमा पर शहीद कई जवानों की पत्नियां उन्हें मिले मुआवजे से शहीद के माता-पिता यानी अपने सास-ससुर को टका नहीं देना चाहतीं। न ही उनके बुढ़ापे की जिम्मेदारी निभाना चाहती हैं। इस सरकारी चुप्पी के बीच एक बड़ा प्रश्न यह है कि यह स्थिति आगे हमें किधर ले जाएगी? समूह के रूप में हम बिकने से इनकार करके अपने मूल्यों की रक्षा कर पाएंगे या ऐसे ही उनके ताबूतों में कीलों का ठोंका जाना देखते रहेंगे?

4फिलहाल, उत्तर प्रदेश ने अपने इतिहास में अराजकता और अव्यवस्था के कई दौर देखे हैं, लेकिन ऐसा दौर कभी नहीं देखा जिसमें सरकार ने मुआवजे और नौकरियों को इंसाफ मांगने वालों की मुंह बंदकराई में बदल दिया हो और उनकी आड़ में की गई डीलों से ‘अपने’ अपराधियों को बचाने में सफलता पाने पर विजयदर्प से मुसकुराती हो! कोई तो समझाए उसे कि यह मुसकुराने का नहीं चुल्लू भर पानी तलाशने का मामला है।

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