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30.4.16

संस्कृत को बढ़ावा देने के पीछे....

-एच.एल.दुसाध
मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी द्वारा आईआईटी में संस्कृत पढाये जाने का प्रस्ताव पेश किये जाने  के बाद सोशल मीडिया में इसके खिलाफ विरोध का सैलाब पैदा हो गया है.लोग जिन शब्दों में इसका विरोध कर रहे हैं, उससे मोदी सरकार बैकफुट पर आती दिख रही है.वंचित वर्गों की ओर से उठ रहे प्रबल विरोध को देखते हुए अटल सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री रहे डॉ.मुरली मनोहर जोशी वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री के बचाव में उतर आये है और ढाल बनाया है डॉ.आंबेडकर को.उनको ऐसा करते देख किसी को विस्मय  भी नहीं हो रहा है .कारण, विज्ञान के प्रोफ़ेसर रहे डॉ.जोशी वह व्यक्ति हैं जिनका लम्बे समय से यह मानना रहा है-अंग्रेजी पेट भर सकती , लेकिन संस्कृत दुनिया की इकलौती भाषा है जो पेट , आत्मा और दिमाग, तीनों को एक साथ संतुष्ट कर सकती है.’इस बात यकीन रखते हुए उन्होंने अपने कार्यकाल में जिस तरह शिक्षालयों में ज्योतिष, पौरोहित्य, संस्कृत इत्यादि को बढ़ावा देने का बलिष्ठ प्रयास किया था, उसी से अनुप्राणित हो कर स्मृति इरानी आगे बढ़ी हैं.बहरहाल डॉ.मुरली मनोहर जोशी ने एक भाजपा समर्थित बहुपठित में लेख लिखकर यह साबित करने का व्यर्थ प्रयास किया है कि डॉ.आंबेडकर संस्कृत को बढ़ावा देने के पक्षधर थे.


उन्होंने अपने लेख में कहा है, ’जब मैं वाजपेयी सरकार में मानव संसाधन मंत्री था तब विभिन्न स्तरों पर संस्कृत और वैदिक गणित आदि मुद्दे उठाये जाते रहे.इस सन्दर्भ में डॉ.एलएम  सिंघवी ने मुझे भारत सरकार द्वारा 1956-57 में गठित संस्कृत आयोग की रिपोर्ट दिखाई थी.उस रिपोर्ट की कुछ मुख्य बातें इस प्रकार थीं-हिंदी को आधिकारिक राष्ट्र भाषा बनाने के लिए लाये जाने वाले बिल को संविधान सभा में आसानी से मंजूरी नहीं मिली .इस मुद्दे पर चर्चा करने वालों की सोच तंग थी.हालाँकि कुछ लोगों ने संस्कृत को राष्ट्र भाषा बनाने का प्रस्ताव दिया और डॉ.बीआर आंबेडकर ने भी उसका साथ दिया था.’डॉ.आंबेडकर संस्कृत के पक्षधर थे, इस बात का महज वे कुछ संकेत कर पायें है, इस तथ्य को बलिष्ठता के साथ अपने लेख में स्थापित नहीं कर पाए हैं.लेकिन आंबेडकर संस्कृत के पक्षधर नहीं थे, इसका सबसे बड़ा सबूत सोशल मीडिया पर आयीं आंबेडकरवादियों की टिप्पणियां हैं, जिनमें स्मृति ईरानी की तीव्र भर्त्सना की गयी हैं.बहरहाल संस्कृत जैसी प्रगति विरोधी भाषा को लेकर हिंदुत्ववादियों में रह-रह कर जो उन्माद पैदा होता रहा है, उसके लिए जिम्मेवार वे अंग्रेज हैं जिन्होंने निहित स्वार्थवश कथित देवभाषा को बढ़ावा देने का उपक्रम चलाया.इस मामले में चैम्पियन रहे सर विलियम जोन्स .

इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दू धर्म-संस्कृति की जयगान और मुस्लिम-विद्वेष के प्रसार के जरिये अपनी राजनीतिक हैसियत बढाने वाले हिन्दुत्ववादियों की ओर से ‘संस्कृत’ नामक जो भाषाई बम बहुजन भारत पर फेंका गया है,  विलियम जोन्स, जो सुप्रीम कोर्ट का जज बनकर बंगाल में आये थे एवं जिन्होंने रॉयल सोसाइटी की स्थापना कर भारी नाम कमाया ही, इसके लिए प्रधान रूप से जिम्मेवार रहे.सर विलियम जोन्स ने यह तथ्य दूसरे अंग्रेजों से बेहतर जान लिया था कि अगर भारत पर राज करना और बहुसंख्य लोगों के मानव-संसाधन स्व-हित में भरपूर इस्तेमाल करना है तो भूदेवताओं को फेवर में करना होगा, जिनके सौजन्य से इस देश का श्रमजीवी वर्ग दैविक-गुलाम में तब्दील हो चुका है एवं जो इन भूदेवताओं के शास्त्रों में अतिशय आस्था  के कारण बिना फल की आशा किये काम करते ही रहता है.इस प्रयोजन से विलियम जोन्स ने सर्व प्रथम आर्य-तत्व का आविष्कार करते हुए 1787 में प्रमाणित किया कि लैटिन -ग्रीक और संस्कृत का उत्स, एक ही जाति  की भाषा है और  उभय भाषा की धमनियों में ही पवित्र आर्य-रक्त प्रवाहित हो रहा है.

अतएवं संस्कृत एवं अंग्रेजी उभय भाषा-भाषी भाई-भाई हैं.उनकी उस खोज से अंग्रेज और भारतीय प्रभुवर्ग में भ्रातृत्व की भावना पनपी. इस भ्रातृभाव को और प्रगाढ़ करने के लिए विलियम जोन्स ने ब्राह्मण संतान राधाकांत देव के साथ मिलकर एसियाटिक सोसाइटी की स्थापना किया.उद्देश्य , प्राचीन भारतीय संस्कृत भाषा और संस्कृति की चर्चा .सर विलियम जोन्स की प्रचेष्टा से प्रवासी अंग्रेजों के मध्य संस्कृत की चर्चा एक फैशन बन गयी.अब संस्कृत भाषा की गहरी जानकारी बौद्धिक मान-प्रतिष्ठा का सूचक बन गयी.इस क्रम में जोन्स के भाइयों ने घोषणा किया कि इस देश के पंडितगण ठीक से संस्कृत नहीं जानते ;प्रकृत विद्या और प्राचीन ग्रंथावलियां इस देश से विलुप्त होती जा रही हैं.

इसलिए विलियम जोन्स ने नेपथ्य में रहकर गवर्नर जनरल को को उत्तेजित कर दिया .अतएवं लार्ड मिन्टो को घोषणा करनी पड़ी, ’आख्रिकार मैं परामर्श देता हूँ कि काशी के अतिरिक्त और दो स्थानों पर संस्कृत कॉलेज स्थापित किये जाएँ.’लार्ड मिन्टो के इस आदेश से संस्कृत को राजकीय संरक्षण मिलने का मार्ग प्रशस्त हो गया.उस दिन संभ्रांत भारतीय अंग्रेजी सीखने एवं संभ्रांत अंग्रेज संस्कृत सीखने का परस्पर आग्रह प्रदर्शन करते हुए एक दूसरे को सम्मान की माला अर्पित किये और देव-भाषा और राज-भाषा की संधि कोटि –कोटि बहुजन के लिए म्रत्युदंड साबित हुयी.कारण,  प्राचीन और नव-विदेशागतों की भाषाई संधि बहुजनों के शोषण की जमीन और मजबूत कर गयी.अगर समय पर राजा राममोहन राय संस्कृत की भाषाई सीमाबद्धता से चैतन्य नहीं हुए होते, विलियम जोन्स और राधाकांत देव के संस्कृत-प्रेम के चलते भारत बीसवीं सदी में ही रह जाता.                

भारतीय रेनेसां के जनक राजा राममोहन राय  ने ‘अंग्रेजी भाषा’में ही भारत की मुक्ति और प्रगति देखकर घडी व्यवसायी डेविड हेयर, सर ड्रिंक वाटर, अलेक्जेंडर इत्यादि अंग्रेज व स्कॉटिश मित्रों के सहयोग से कोलकाता की छाती पर अंग्रेजी शिक्षा-विस्तार के लिए एक बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दिया.अंग्रेजी प्रशासकों एवं वित्तशाली भारतीय आभिजात्य वर्ग के आर्थिक सहयोग एवं सक्रियता से अंग्रेजी में उच्च स्तरीय शिक्षा ग्रहण के लिए जो आन्दोलन खड़ा हुआ, उसमें हजारों साल से शिक्षा से बहिष्कृत शुद्रातिशूद्रों को शिक्षार्जन की सम्भावना  नहीं के बराबर थी.आर्थिक अक्षमता व शिक्षा के अधिकार से वंचित रहने के कारण वंचित बहुजनो द्वारा अंग्रेजी शिक्षा का लाभ उठाने की अक्षमता के बावजूद रक्षणशील ब्राह्मणों ने सदल-बल राजा का जीना दुश्वार कर दिया .राजा-विरोधी ब्राह्मणों का तर्क था था कि सर्व प्रकार की विद्या-शिक्षा का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों को मुक्त है, जो स्वयं ईश्वर ने उन्हें प्रदान किया है.इसलिए केवल मात्र ब्राह्मण समुदाय द्वारा व्यवहृत देव-भाषा संस्कृत ही शिक्षा का माध्यम हो सकती है.किन्तु राजा राममोहन राय हर हाल में मुक्त-विचार व युक्तिवाद निर्भर नए-नए ज्ञानान्वेषण करनी वाली अंग्रेजी को स्थापित करना चाहते थे,  इसलिए अपने प्रभावशाली मित्रों के समर्थन से संस्कृत समर्थकों के प्रतिरोध में उतरे .

अंग्रेजी को प्रमुखता देने के क्रम में विलियम जोन्स की मंत्रणा से संस्कृत को बढ़ावा दे रहे लार्ड अमहर्स्ट को भी कटु पत्र लिखने का दुसाहस कर डाला, राजा राममोहन ने .1823 में उन्होंने अम्हर्स्ट को लिखा, -यदि अंग्रेज जाति को प्रकृत ज्ञान विषय से अज्ञान रखना उद्देश्य होता तो  प्राचीन स्कूलमैनों की असार विद्या के बदले बेकन के ज्ञान के प्रतिष्ठित नहीं करना ही श्रेयस्कर होता, प्राचीन ज्ञान ही अज्ञानता को कायम रखता.इसी भाँति  भारत के लोगों को यदि अज्ञानता के अन्धकार में रखना ही ब्रिटश सरकार की आकांक्षा और नीति है तो संस्कृत भाषा में शिक्षा प्रदान करने से कोई उत्कृष्टतम उपाय ही नहीं हो सकता.अब जबकि इस देश के लोगों के उन्नत व उदार नीति का अवलंबन आवश्यक हो गया है , यूरोप के शिक्षित व ज्ञानसंपन्न व्यक्तियों को नियुक्त करने व अंग्रेजी शिक्षा के कॉलेज स्थापित करने से ही इस महत उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है.’

राय बहादुर राजा राममोहन राय ने यह पत्र तब लिखा जब प्राचीन विद्या (संस्कृत और अरबी) को प्रोत्साहित करने के लिए 1८13 से एक लाख अनुदान देने की जो व्यवस्था कर राखी उसे 1823 में स्थापित ‘पब्लिक इंस्ट्रक्शन समिति’ ने जारी रखने की योजना ग्रहण की.इसी के विरुद्ध राजा राममोहन ने प्रतिवाद जताते हुए  लार्ड अम्हर्स्ट के समक्ष युक्ति रखी जो उनको को स्पर्श कर गयी.परिणाम स्वरूप धीरे-धेरे अंग्रेजी को बढ़ावा देने वाले शिक्षालयों की श्रृंखला खड़ी होने लगी.इसके साथ-साथ संस्कृत राजकीय संरक्षण से वंचित होकर मृत प्राय होती गई.किन्तु संस्कृत के निहायत ही अल्पसंख्यक लोगों तक सिमटने के बावजूद  इसे ब्राह्मणों ने देव-भाषा मानते हुए शुद्रातिशूद्रों को लम्बे समय तक इससे बहिष्कृत रखा.यहां तक कि  डॉ.आंबेडकर जैसे सर्वकाल के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी को इसे भारत में नहीं सीखने दिया गया.फलतः इसके लिए उन्हें मैक्स मूलर के देश जर्मनी के बॉन यूनिवर्सिटी के शरणापन्न होना पड़ा.बहरहाल लम्बे समय तक राजकीय संरक्षण से वंचित रही संस्कृत व इस पर निर्भर ज्योतिष इत्यादि प्राचीन विद्या के अच्छे दिन तब आये , जब आजाद भारत में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में हिंदुत्ववादी सत्ता कायम हुई .उनके कार्यकाल में डॉ.मुरली मनोहर जोशी ने संस्कृत , ज्योतिर्विज्ञान इत्यादि को बढ़ावा देने का भरपूर प्रयास किया.अब डॉ.जोशी के ही नक़्शे कदम पर चलने का प्रयास वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री कर रही हैं.

बहरहाल अटल के बाद मोदी राज में ज्योतिष, पौरोहित्य, संस्कृत इत्यादि प्रगति विरोधी विद्याओं को जो बढ़ावा दिया गया या दिया जा रहा उसका प्रधान लक्ष्य ब्राह्मण जाति ही उपकृत करना है .जहाँ दैविक अधिकार और संस्कारगत रूचि के कारण ब्राह्मण संस्कृत, ज्योतिष और पौरोहित्य में पारंगत होकर लाखों की तादाद में शिक्षक इत्यादि के रूप में नौकरी पाएंगे, वहीँ  ज्योतिर्विज्ञान और पौरोहित्य के क्षेत्र में इनका एकाधिकार और पुष्ट होगा.लेकिन संस्कृत, ज्योतिष इत्यादि प्राचीन विद्याओं को प्रोत्साहित करने का एकमेव लक्ष्य सिर्फ ब्राह्मणों को रोजगार का सुरक्षित क्षेत्र ही सुलभ कराना नहीं है.वे अपने इस उपक्रम के द्वारा भूमंडलीकरण,  निजीकरण-उदारीकरण के फलस्वरूप भविष्य में दलित-पिछड़ों की जो भूखी , अधनंगी फौज खड़ी होगी;उसमें विद्रोह की जो अग्नि भड़केगी, उसको शांत करने का लक्ष्य भी पा लेंगे.विश्व विश्वविद्यालयों से निकले डिग्रीधारी स्मार्ट ज्योतिर्विज्ञानी और पंडित अपनी प्रतिभा का जमकर इस्तेमाल करते हुए दैविक -दासों(दलित-आदिवासी-पिछड़ों) में पुनर्जन्मवाद और भाग्यवाद कूंट-कूंट कर भर देंगे.तब ये दैविक दास दरिद्रता की खाई में और गिर कर भी, विशेषाधिकारयुक्त और सुविधासंपन्न सर्वोत्तम लोगों की सुख में खलल नहीं डालेंगे.बस्स, मरणोपरांत सुख की अभिलाषा में जीवन की गाड़ी खींचते रहेंगे, खींचते रहेंगे.बहरहाल वर्तमान सरकार द्वारा संस्कृत को बढ़ावा देने का जो कुत्सित प्रयास हो रहा है उसको थोडा-बहुत मानवीय चेहरा सिर्फ संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षकों की भर्ती में सामाजिक विविधता लागू करके ही प्रदान किया जा सकता है, दूसरा कोई और उपाय नहीं है.

लेखक एच.एल.दुसाध वरिष्ठ स्तंभकार हैं. 

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