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31.5.16

पत्रकारिता दिवस पर विशेष : कलम की ताकत बंदूक से कहीं ज्यादा

चित्र हो या खबर किसी की जान नहीं लेते। लेकिन जिस तरह कलम के सिपाहियों की उनकी खबर या कार्टून उन्हीं के जान की दुश्मन बन रहे है, उससे तो यही कहा जा सकता है कलम की ताकत बंदूक या लालफीताशाही के उत्पीड़नात्मक रवैये से कहीं ज्यादा है। यह सही है कि किसी की अभिव्यक्ति पर आपकी असहमति हो, आप उसे मानने या न मानने के लिए भी तो स्वतंत्र है, लेकिन विरोधी स्वर को हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर देना कहीं से भी न्याय संगत नहीं है। परंतु सब कुछ हो रहा है 


सुरेश गांधी

बिहार का सिवान हो या झारखंड का रांची या यूपी समेत अन्य सूबा जहां हाल में पत्रकारों की हत्याएं सिर्फ इसलिए की गयी कि सामने वाले उसके खबर से इत्तफाक नहीं रखता है। शायद वह नहीं जानते कि पत्रकार किसी मजहब-जाति का नहीं बल्कि समाज में व्याप्त कुरीतियों का दुश्मन होता है। अफसोस इन कुरीतियों व काले कारनामों के ठेकेदार बोली का जवाब बोली से देने के बजाएं बुलेट या अपनी ओछी हरकतों से देते है। बंदूक चलाने वाले नहीं जानते कि हम कलम चलाने से पहले निश्चय कर लेते है कि अब से पूरा समाज, पूरा देश, पूरी दुनिया ही हमारा परिवार हैै। हम उनकी हक व आवाज उठाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते है चाहे इसके लिए हमें किसी भी तरह की कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़ी। हम तो बस अपना काम करते है, जो हमें करनी चाहिए। हम तो जान हथेली पर लेकर ही सुबह से देर रात तक सड़क हो या कोई भी जोखिम भरा इलाका सब जगह पहुंच कर फोटों खिचने से लेकर वीडियों शूटिंग व रिपोर्टिंग करते है। भ्रष्ट लालफीताशाही आफिसरों से लेकर पुलिस के काले कारनामों को भी बड़े ही तथ्यात्मक तरीके से प्रकाशित कराते है। यहां तक कि चाहे बम धमाके हो या सीमा पर सीज फायर का उल्लघंन हो या फिर आतंकी हमला या समुंदर में सुनामी तुुफान हो चक्रवात या फिर भूकंप ही क्यों न हो, हर परिस्थिति में अपनी परवाह किए बगैर हम निकल जाते है अपने मिशन पर, ताकि हर आमो-ओ-खास तक सही-सही जानकरी पहुंचा सके।

इसके बावजूद लालफीताशाही आफिसर हो या बाहुबलि माफिया या सत्ता पक्ष के जनप्रतिनिधि अपने पद का दुरुपयोग कर पत्रकारों का उत्पीड़न करते है। पत्रकार की कलम सच न उगले फर्जी मुकदमें दर्ज कर घर-गृहस्थी लूट लेते है या लूटवा देते है या फिर जिंदा जला देते है या जलवा देते है। जबकि खबर किसी की जान नहीं लेते, लेकिन जिस तरह चाहे वह यूपी हो या बिहार या मध्य प्रदेश या फिर महाराष्ट्र जैसे अन्य प्रदेश कलम के सिपाहियों की खबर उनके जान की दुश्मन बन रही है, उससे तो यही कहा जा सकता है कलम की ताकत बंदूक या लालफीताशाही के उत्पीड़नात्मक रवैये से कहीं ज्यादा है। यह सही है कि किसी की अभिव्यक्ति पर आपकी असहमति हो, आप उसे मानने या न मानने के लिए भी तो स्वतंत्र है, लेकिन विरोधी स्वर को हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर देने या दुसरों पर अपनी सोच जबरन थोपने की इजाजत किसी को भी नहीं है। परंतु सब हो रहा है। कुछ दलाल, ब्रोकर व लाइजनिंग में जुटे पत्रकारों को छोड़ दे तों ऐसे पत्रकारों की संख्या एक-दो नहीं बल्कि हजारों में है, जो हर तरह के असामाजिक तत्वों की पोल अपनी कलम के जरिए उजागर करते है और हर वक्त लालफीताशाही से लेकर नेता माफिया व पुलिस के निशाने पर रहते है। बात आंकड़ों की किया जाएं तो पत्रकारों के साथ होने वाली घटनाओं की संख्या हाल के दिनों में बड़े पैमाने पर बढ़ी है। पत्रकारिता के लिहाज से अब हमारा भी देश बेहद खतरनाक की श्रेणी में शामिल हो गया है। देश का सबसे बड़ा सूबा यूपी व बिहार सर्वाधिक संवेदनशील हो गया है। हाल के दिनों में दो दर्जन से अधिक पत्रकारों की हत्या, 500 से अधिक पत्रकारों पर फर्जी मुकदमें व दो दर्जन से अधिक पत्रकारों की घर-गृहस्थी लूटा जा चुका है।

वैसे भी पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यूं हीं नहीं कहा जाता। कुछ चाटुकार व लाइजनिंग के धंधे में जुड़े पत्रकारों को छोड़ दे, बाकी के लोगों तक सच पहुंचाने के लिए हम पत्रकार अपनी जान तक का परवाह नहीं करते। दुनियाभर में फैली हमारी बिरादरी हर तरह के हालात में लड़ते हुए काम कर रही है, ताकि सच जिंदा रहे। लोकतंत्र में लोगों की आस्था बनी रहे। जीवंत रहे, धड़कता रहे, गलत की जीत व सही की हार न हो। इससे सटीक उदाहरण और क्या हो सकता है कि पत्रकारों की हत्या या उत्पीड़न के बाद भी खबरों का प्रकाशन बंद नहीं होता। यदि ईसा मसीह, महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी की हत्या करके उनके हत्यारों ने यह सोचा होगा कि वे उनकी आवाजों को ठंडा कर देंगे तो क्या हुआ? उसके परिणाम उल्टे ही हुए। यानी उनकी कलम को ना ही बंदूक रोक सकती है और ना ही समय-समय पर उत्पीड़न करने वाले लालफीताशाही आफिसर या नेता या दलित सहित अन्य महिला उत्पीड़न व बलातकार के आरोपियों को पनाह देने वाले राजनीतिक पार्टियां। अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ ही यह है कि उसमें कभी-कभी अपने हद से पार जाकर सच को कहा या लिखा जाय और उसके लिए खतरा उठाना लोकतांत्रिक समाज में किसी न किसी रुप में जरूरी होता है। लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब असुविधाजनक या अप्रिय अभिव्यक्ति को बर्दाश्त करने की सहिष्णुता भी है। हो सकता है कि किसी की कोई बात दूसरे को बुरी लगे, लेकिन एक लोकतांत्रिक और बहुलतापूर्ण समाज में उदारता और सहनशीलता जरूरी है। इसका मतलब कत्तई यह नहीं है कि अगर आपकों किसी की अभिव्यक्ति अच्छी नहीं लगी तो उसके लिए किसी की जान लें लें। उसके लिए कोर्ट-कचहरी सहित अन्य तरीके का भी तो इस्तेमाल हो सकता है। यह भी सही है कि किसी की अभिव्यक्ति पर आपकी असहमति हो, आपस उसे मानने या न मानने के लिए भी तो स्वतंत्र है, लेकिन विरोधी स्वर को खामोश कर देने या दुसरों पर अपनी सोच जबरन थोपने की इजाजत तो किसी को भी नहीं है। पर अफसोस है सबकुछ हो रहा है।

बलात्कार, दिनदहाड़े हत्या, घपले-घोटाले, अवैध खनन आदि घटनाओं को उजागर व आरोपी को जनता के सामने लाकर बेनकाब करना अगर गुनाह है तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर सच है तो फिर इनकी बखिया उधेड़ने वाले पत्रकारों की क्यों सिलसिलेवार हत्याएं हो रही है। यह अपने आप में बड़ा सवाल है। आखिर इसकी छानबीन क्यों नहीं हो पा रही है। आखिर क्यों इन घटनाओं में संलिप्तों के आरोपों की जांच में लगे आफिसरों की ही रिपोर्ट को सही मान लिया जाता है, जिसके बारे में जगजाहिर है कि वह अपने दोषी अधिकारियों के खिलाफ रिपोर्ट देना तो दूर जुबा तक नहीं खोलेंगे, फिर इन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों से क्यों दोषियों की जांच कराई जाती है।  कहा जा सकता है इस तरह के हालात पत्रकारों के लिए आपताकाल से भी बुरी स्थिति है। अभिव्‍यक्ति की आजादी का खुलेआम कत्‍ल किया जा रहा है। सरकारें मौत की कीमत मुआवजे में तौल रही है। मैने खुद जब भदोही में बलात्कार व उत्पीड़न की शिकार दलित युवती की आवाज उठाई, बाहुबलि विधायक से लेकर माफिया तक के काले कारनामों को उजागर करने के साथ ही भ्रष्ट पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों की कारगुजारी जनता के सामने उजागर किया तो इन भ्रष्टाचारियों ने मिलकर न सिर्फ कई फर्जी मुकदमें दर्ज किए बल्कि मेरी पूरी गृहस्थी लूटवा दी, लेकिन मैंने घुटने टेकने के बजाय दो टूक जवाब में कहा, मैं कलम चला रहा हूं, हथियार नहीं। इन सारे झंझावतों के बावजूद आज भी मेरी कोशिश दिन-रात यही है कि आप तक सही घटनाओं व काले कारनामों को पहुंचाने का पूरजोर कोशिश करता रहूं।

वह दौर-ए-गुलामी था, यह दौर-ए-गुलामां है-पत्रकारिता के संघर्ष की इससे दो दिशाएं साफ होती हैं। तब ‘मिशन’ था अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का और अब दौर है आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक दासता से मुक्ति का। इसी ‘मुक्ति’ की चाहत के साथ समर्पित भाव से काम करने वाले दर्जनों पत्रकारों ने अपनी जानें गंवा दीं। इनके जज्बे को भी सलाम करने का मौका है- पत्रकारिता दिवस। पत्रकारिता अमर है बस उसे करने के लिए जोशीले कर्मठ युवाओ की जरुरत है। वह समय के साथ-साथ अपना रूप बदलती रहेगी। कभी प्रिंट मीडिया कभी इलेक्ट्रोनिक मीडिया के रूप में। पत्रकारिता को करने के लिए पत्रकारों को चाहिए कि वह अपना काम पुरे जोश और लगन से करते रहे और पत्रकारिता को मजबूत बनाते रहे। इसमें कोई शक नहीं कि हिंदी पत्रकारिता समृद्ध हुई है। इसकी ताकत का दुनिया ने लोहा माना है। अंग्रेजी के पत्रकार भी थक हार कर हिंदी के मैदान में कूद गए। भले ही उनके लिए हिंदी पत्रकारिता ठीक वैसे ही हो, जैसा कहावत है- खाए के भतार के और गाए के यार के। लेकिन ये हिंदी की ताकत है। लेकिन इस ताकत की गुमान में हमने सोचने समझने की शक्ति को खो दिया। ये सच है कि एक दौर था जब अंग्रेजी की ताकत के सामने हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे की मानी जाती थी। मूर्धन्य लोग पराक्रमी अंदाज में ये दावा करते थे- आई डोंट नो क, ख ग आफ हिंदी बट आई एम एडिटर आफ..... मैगजिन। लेकिन तब के हिंदी के पत्रकार डरते नहीं थे। डटकर खड़े होते थे और ताल ठोककर कहते थे- आई फील प्राउड दैट आई रिप्रजेंट द क्लास आफ कुलीज, नॉट द बाबूज। आई एम ए हिंदी जर्नलिस्ट। व्हाट वी राइट, द पीपुल आफ इंडिया रीड एंड रूलर्स कंपेल्स टू रीड आवर न्यूज। आज इस तरह के दावे करनेवाले पत्रकारों के चेहरे नहीं दिखते। लालाओं को अप्वाइनमेंट लेकर आने को कहने वाले संपादक नहीं दिखते। नेताओं को ठेंगे पर रखने वाले पत्रकार नहीं मिलते। कलम को धार देने वाले पत्रकार नहीं मिलते।

ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी, तकवी शकंर पिल्ले, राजेंद्र माथुर,सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय की जमाने की पत्रकारिता की कल्पना करना मूर्खता होगी। लेकिन इतना तो जरूर सोचा जा सकता है कि हम जो कर रहे हैं, वो वाकई पत्रकारिता है क्या। सब जानते हैं कि भारत में देश की आजादी के लिए पत्रकारिता की शुरूआत हुई। पत्रकारिता तब भी हिंदी और अंग्रेजी के अलावा कई भाषाओं में होती थी। लेकिन भाषाओं के बीच में दीवार नहीं थी। वो मिशन की पत्रकारिता थी। आज प्रोफोशन की  पत्रकारिता हो रही है। पहले हाथों से अखबार लिखे जाते थे। लेकिन उसमें इतनी ताकत जरूर होती थी कि गोरी चमड़ी भी काली पड़ जाती थी। आज आधुनिकता का दौर है। तकनीक की लड़ाई लड़ी जा रही है। फोर कलर से लेकर न जाने कितने कलर तक की प्रिटिंग मशीनें आ गई हैं। टीवी पत्रकारिता भी सेल्युलायड, लो बैंड, हाई बैंड और बीटा के रास्ते होते हुए इनपीएस, विजआरटी, आक्टोपस जैसी तकनीक से हो रही है। लेकिन आज किसी की भी चमड़ी पर कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद चमड़ी मोटी हो गई है। तब पत्रकारिता प्रवृत्ति थी अब आजादी के बाद वृत्ति यानी आजीविका का साधन हो गयी। पहले पत्रकारिता मिसन थी अब कमीनो का कमीसन हो गयी। भगत सिंह ने जब असेम्बली बम काण्ड किया तो अंग्रेजों को उनके विरुद्ध कोइ भारतीय गवाह नहीं मिल रहा था। तब दिल्ली के कनाटप्लेस पर फलों के जूस की दुकान लगाने वाले ने अंग्रेजों के पक्ष में भगत सिंह के विरुद्ध झूटी गवाही देकर भगत सिंह को फांसी दिलवाई और इस गद्दारी के बदले अंग्रेजों ने पुरष्कृत करके सर की टाइटिल दी और कनाट प्लेस के बहुत बड़े भाग का पत्ता भी उसके हक में कर दिया। पेड न्यूज और मीडिया मेनेजमेंट जैसे शब्द संबोधन वर्तमान मीडिया का चरित्र साफ कर देते हैं कि मीडिया का सच अब बिकाऊ है टिकाऊ नहीं। क्या है कोई संस्था जो पत्रकारों पर आय की ज्ञात श्रोतों से अधिक धन होने की विवेचना करे?

पहले सच मीडिया बताती थी और न्याय न्याय पालिका करती थी। मीडिया और न्याय पालिका ही दो हाथ थे जो रोते हुए जन -गन -मन के आंसू पोंछते थे। अब ये दोनों हाथ जनता के चीर हरण में लगे हैं। आज पत्रकारिता के कामकाज की दशाएं बदली हैं। एक पत्रकार को जीविका के लिए पूरा साधन न मिले, तो वह देश-दुनिया की चिंता क्या करेगा? फिर भी दूसरे पेशों में यह स्थिति पत्रकारिता क्षेत्र में काम करने वालों से काफी अच्छी है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। माना कुछ पत्रकार मीडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। चूंकि पैसे का इंतजाम ये लोग करते हैं, इसलिए इनकी सुनी भी जाती है। इसमें गलत कुछ नहीं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ जरूरतें भी होतीं हैं। उनकी सबसे बड़ी पूंजी उनकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। जब कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा करने लगता है, तब वह उस वस्तु को खरीदने के बारे में सोचना शुरू करता है, जिसका विज्ञापन अखबार में होता है। विज्ञापन छापते वक्त भी अखबार ध्यान रखते हैं कि वह विज्ञापन जैसा लगे। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन से अपनी दूरी रखते हैं। यह एक मान्य परम्परा है। अखबार अपने मूल्यों पर टिकें तो उतने मजेदार नहीं होंगे, जितने होना चाहते हैं। जैसे ही वे समस्याओं की तह पर जाएंगे उनमें संजीदगी आएगी। दुर्भाग्य है कि हिन्दी पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी थी, बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ने चले जाते हैं। ऊपर से अखबारों के संचालकों के मन में अपनी पूंजी के रिटर्न की फिक्र है। वे भी संजीदा मसलों को नहीं समझते। यों जैसे भी थे, अखबारों के परम्परागत मैनेजर कुछ बातों को समझते थे। उन्हें हटाने की होड़ लगी। अब के मैनेजर अलग-अलग उद्योगों से आ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता के मूल्यों-मर्यादाओं का ऐहसास नहीं है।

लेखक SURESH GANDHI से संपर्क iamsureshgandhi@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.

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