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26.12.16

सैफ-करीना के ‘तैमूर’ पर काशी में बखेड़ा

शेक्सपियर ने कहा था, ‘नाम में क्या रखा है। गुलाब को चाहे जिस नाम से पुकारो, गुलाब ही रहेगा।’ काशी में इन दिनों इस बात पर वाकयुद्ध चल रहा है कि सैफ-करीना ने अपने बेटे को जालिम ‘तैमूर’ का नाम क्यों दिया? नीचीबाग में चाय की अड़ी पर पंत प्रधान के एक भक्त ने मूड़ी हिलाते हुए शायराना अंदाज में कहा, ‘शायद सैफ-करीना को तैमूर नाम इसलिए पसंद आया हो कि ‘ओमकारा’ के समय दोनों के नैन लड़े थे। फिल्म में सैफ ‘लंगड़ा त्यागी’ थे। क्रूर शासक तैमूर लंग भी लंगड़ा था। कौरव-पांडवों में महाभारत कराने वाला शकुनी मामा भी लंगड़ा था।


20 दिसंबर से दूरदर्शी के पड़ोसी मंगरू चचा कुढ़ रहे हैं। कह रहे हैं कि तैमूर के बजाय शेर अली खान, नवाब अली खान पसंद नहीं था तो नाम पाकिस्तान अली खान रख लेते। ये भी पसंद नहीं था तो कलक्टर सिंह या कप्तान सिंह रख लेते। लोहा सिंह, भाला सिंह, बल्लम सिंह रखते तब भी किसी को एतराज नहीं होता। भला ऐसा कौन इंसान होगा जो अपने बच्चे का नाम उसके नाम पर रखेगा जिसने उसके पूर्वजों के साथ बर्बरता की हो। काशी में क्या किसी ने अपने बेटे का नाम रावण रखा है? क्या किसी यूरोपियन ने अपने लाडले का नाम हिटलर रखा है? नाम की कोई तासीर नहीं होती तो दबंग प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कुनबे के नाम पर देश भर के लोगों में राजीव, राहुल, प्रियंका नाम रखने की होड़ नहीं मचती?

दूरदर्शी ने चचा को समझाया, ‘तैमूर नाम से जब सैफ-करीना को कोई फर्क नहीं रहा तो आपको आग क्यों लग रही है? क्या सारा खून-खराबा, लूट-मार का ठेका ‘तैमूर’ ने ही ले रखा है? आमिर या अमिताभ नाम रख लेते तो वो महानायक बन जाता? ये उनकी कोई फिल्म नहीं है जो आप रिव्यू दें। लोगों को यह बताएं कि जग में सुंदर हैं दो नाम- चाहे कृष्ण कहो या राम।’

दूरदर्शी ने लंगड़े का इतिहास बूंका तो मंगरू चचा भौचक्के रह गए। उन्हें समझ में आ गया कि ‘तैमूर लंग’ से बनारस कनेक्शन क्या है। वह इस शहर में होता तो शायद क्रूर नहीं होता। समाज में मिठास घोलता। चमकदार इतिहास बनाता। देखा नहीं, बाबा विश्वनाथ ने अपनी जटा से गंगा निकाली तो बनारस में किस तरह लंगड़ी हो गईं। मोक्षदायिनी बन गईं।

बनारसी लंगड़े का इतिहास तो सदियों पुराना है। लंगड़ा था इसलिए ‘बनारसी आम’ दुनिया में मशहूर हो गया।  चकाचक बनारसी फरमाते थे, ‘यारों का यार बनारस का ये लंगड़ा। करता है खबरदार बनारस का ये लंगड़ा। है चमत्कार बनारस का ये लंगड़ा। गुद्दा भरा है, तन हरा है, पीला है मुखड़ा। चौसा-दशहरी का बाप है लंगड़ा। साड़ी है, मगही पान है और आम है लंगड़ा।’ फकत आम ही नहीं, मशहूर मस्जिद भी है हाफिज लंगड़ा। यहीं होता है ईद और रोजे का एलान भी तगड़ा। बनारसियों का लंगड़ों से मुहब्बत है तगड़ा। सदियों पुराना कनेक्शन है तगड़ा। दुनिया के नायाब शहर का जलवा भी है तगड़ा।

दूरदर्शी को लगता है कि जिस शहर का ‘राजा’ भंगेड़ी और ‘कोतवाल’ हो शराबी, वहां कुछ भी असंभव नहीं। तभी तो बनारस में हर आदमी राजा है, मालिक है, गुरु है। शहनाई, तबला, सारंगी है। ठुमरी, चैती, कजरी है। कभी लगता है सच है, कभी लगता है सपना है। कितना सरल और कितना विरल है। जितना सुगम, उतना गझिन है। काशी एक काया भी है, एक छाया भी है। जीवन शैली में कई बोलियां हैं और कई गालियां भी हैं। काशी में सब कुछ सुमंगल है। मौत भी यहां मंगल है।

उज्बेकिस्तानी जालिम शासक ‘तैमूर लंग’ जब पैदा हुआ था, साल था 1336, आज से 680 साल पहले। तब न स्कूल था और न पढ़ाई-लिखाई होती थी। यकीनन 21वीं सदी के तैमूर को उसके मां-बाप अच्छी तालीम देंगे। क्रूर ‘तैमूर’ ने भारत में नरमुंड की मीनार बनाई थी। इस समय वो माहौल नहीं है। इस तैमूर का बाप मुस्लिम है तो मां हिन्दू। बुआ मुस्लिम हैं तो फूफा हिन्दू। यहां तो हिन्दू और मुस्लिम की खाई ही पटी पड़ी है। किस मौके पर उसे हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर इस अलगाव के बारे में मालूम चलेगा?

सोशल मीडिया के दीवानों को ‘तैमूर’ पर बखेड़ा करने की जरुरत नहीं है। वह चगताई मंगोलों का आदर्श नहीं बनेगा। वह लोगों पर धौंस नहीं जमाएगा। लूट-चोरी और बेकुसूरों का कत्लेआम नहीं करेगा। कोई चंगेज खान उसका आइडल नहीं बनेगा। उसे तलवार के दम पर दुनिया जीत लेने की सीख नहीं दी जाएगी। अगर आप किसी का नाम ‘तैमूर’ रखते हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि वो उसी रास्ते पर चलेगा...। जहां तक ‘तैमूर’ नाम का सवाल है तो इसका अर्थ होता है-लोहा (इस्पात)। बहन मायावती के भक्त उन्हें देवी भी कहते हैं तो आयरन लेडी भी। यही रुतबा पहले इंदिरा के पास भी था।
मतलब ‘तैमूर’ भी लोहा, इंदिरा भी लोहा और माया भी लोहा...।

और अंत में....

न जाने क्यूं अपना बना के सजा देते हैं।
जिंदगी छीनकर, जीने की दुआ देते हैं।।

विजय विनीत
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
मो. 9415201470

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